पदार्थान्वयभाषाः - [१] प्रस्तुत मन्त्र में प्रभु पिता है, प्रकृति माता है। संसार में सब व्यक्ति (क्रतवे) = यज्ञों के लिये तथा (पार्याय) = कर्मों के पार जाने के लिये, अर्थात् उन यज्ञादि कर्मों में सफलता के लिये (तं हिन्वन्ति) = उस प्रभु को प्राप्त करते हैं जो कि (दशानाम्) = दसों इन्द्रियों के (एकम्) = अद्वितीय (कपिलम्) = [कवृवर्णे, कपिं लाति] रंग के भरनेवाले, अर्थात् उस उस इन्द्रिय को अमुक-अमुक शक्ति प्राप्त करानेवाले अथवा [कम्प् गतौ ] प्रत्येक इन्द्रिय को गतिशील बनानेवाले, अपने-अपने कार्य में समर्थ करनेवाले हैं और (सम् आनम्) = सम्यक्तया प्राणशक्ति का संचार करनेवाले हैं। हृदयस्थ रूपेण प्रभु अपने पुत्र जीव को सदा उत्साह युक्त मनवाला करते हैं और उसे सोत्साह बनाकर प्रत्येक कर्म में सफल करते हैं । 'यच्छ्रोत्रेण न शृणोति येन श्रोत्रमिदं श्रुतम्' इत्यादि केनोपनिषद् के वाक्यों से यह स्पष्ट है कि प्रभु ही इन्द्रियों को कार्य समर्थ बनाते हैं । [२] इस प्रभु से उत्साह व शक्ति को प्राप्त करके (गर्भम्) = [ गिरति अनर्थम्] अनर्थों के समाप्त कर देनेवाले, विघ्न-बाधाओं से न घबराकर उन्हें पार कर जानेवाले और अतएव (वक्षणासु) = [ वक्ष To grow ] आर्थिक, शारीरिक, मानस व बौद्ध सभी प्रकार की उन्नतियों में (सुधितम्) = उत्तमता से स्थापित, ऐसा होते हुए भी (अवेनन्तम्) = इन सांसारिक वस्तुओं की कामना न करते हुए [अकामयमानम्] अथवा 'अ' प्रभु की ही कामनावाले पुरुष का (माता) = यह निर्माण करनेवाली प्रकृति माता (तुषयन्ती) = जीव की उन्नति से अन्दर ही अन्दर सन्तोष का अनुभव करती हुई (बिभर्ति) = उसका भरण व पोषण करती है। प्रकृति उसे किसी आवश्यक वस्तु की कमी नहीं रहने देती। इन वस्तुओं के ठीक से प्राप्त होते रहने पर ही उन्नति स्थिर रहती है। प्रभु उत्साह देकर मन को उन्नत करते थे तो प्रकृति सब आवश्यक खान-पान का सामान प्राप्त कराके उसके शरीर को पुष्ट करती है और जीव को उन्नत होते हुए देखकर सन्तुष्ट होती है ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- प्रभु हमारे पिता हैं, वे हमारे में उत्साह का संचार करते हैं । प्रकृति माता है, वह हमारे खान-पान का पूरा ध्यान करती है ।