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द॒शा॒नामेकं॑ कपि॒लं स॑मा॒नं तं हि॑न्वन्ति॒ क्रत॑वे॒ पार्या॑य । गर्भं॑ मा॒ता सुधि॑तं व॒क्षणा॒स्ववे॑नन्तं तु॒षय॑न्ती बिभर्ति ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

daśānām ekaṁ kapilaṁ samānaṁ taṁ hinvanti kratave pāryāya | garbham mātā sudhitaṁ vakṣaṇāsv avenantaṁ tuṣayantī bibharti ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

द॒शा॒नाम् । एक॑म् । क॒पि॒लम् । स॒मा॒नम् । तम् । हि॒न्व॒न्ति॒ । क्रत॑वे । पार्या॑य । गर्भ॑म् । मा॒ता । सुऽधि॑तम् । व॒क्षणा॑सु । अवे॑नन्तम् । तु॒षय॑न्ती । बि॒भ॒र्ति॒ ॥ १०.२७.१६

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:27» मन्त्र:16 | अष्टक:7» अध्याय:7» वर्ग:18» मन्त्र:1 | मण्डल:10» अनुवाक:2» मन्त्र:16


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (दशानाम्-एकं कपिलं समानं तम्) दशों इन्द्रियों का एक कमनीय समान भाव से वर्तमान उस आत्मा को (पार्याय क्रतवे हिन्वन्ति) परे वर्त्तमान-मोक्ष के लिये और संसार में कर्म के लिये वे इन्द्रियाँ प्रेरित करती हैं (वक्षणासु-माता गर्भं सुधितम्-अवेनन्तम्) नाड़ियों में प्रकृति माता गर्भरूप में भली-भाँति प्राप्त हुए-शरीर से न निकलने की कामना करते हुए को (तुषयन्ती बिभर्ति) सन्तुष्ट करती हुई धारण करती है ॥१६॥
भावार्थभाषाः - इन्द्रियों का इष्टदेव आत्मा है, उसे वे अपवर्ग-मोक्ष, भोगार्थ कर्म करने के लिये प्रेरित करती हैं। शरीर की नाड़ियों और भिन्न-भिन्न अङ्गों में प्रकृति स्थान देती है, शरीर को न छोड़ने की इच्छा रखनेवाले उस आत्मा को प्रकृति सन्तोष देती हुई धारण करती है ॥१६॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

जगतः पितरौ

पदार्थान्वयभाषाः - [१] प्रस्तुत मन्त्र में प्रभु पिता है, प्रकृति माता है। संसार में सब व्यक्ति (क्रतवे) = यज्ञों के लिये तथा (पार्याय) = कर्मों के पार जाने के लिये, अर्थात् उन यज्ञादि कर्मों में सफलता के लिये (तं हिन्वन्ति) = उस प्रभु को प्राप्त करते हैं जो कि (दशानाम्) = दसों इन्द्रियों के (एकम्) = अद्वितीय (कपिलम्) = [कवृवर्णे, कपिं लाति] रंग के भरनेवाले, अर्थात् उस उस इन्द्रिय को अमुक-अमुक शक्ति प्राप्त करानेवाले अथवा [कम्प् गतौ ] प्रत्येक इन्द्रिय को गतिशील बनानेवाले, अपने-अपने कार्य में समर्थ करनेवाले हैं और (सम् आनम्) = सम्यक्तया प्राणशक्ति का संचार करनेवाले हैं। हृदयस्थ रूपेण प्रभु अपने पुत्र जीव को सदा उत्साह युक्त मनवाला करते हैं और उसे सोत्साह बनाकर प्रत्येक कर्म में सफल करते हैं । 'यच्छ्रोत्रेण न शृणोति येन श्रोत्रमिदं श्रुतम्' इत्यादि केनोपनिषद् के वाक्यों से यह स्पष्ट है कि प्रभु ही इन्द्रियों को कार्य समर्थ बनाते हैं । [२] इस प्रभु से उत्साह व शक्ति को प्राप्त करके (गर्भम्) = [ गिरति अनर्थम्] अनर्थों के समाप्त कर देनेवाले, विघ्न-बाधाओं से न घबराकर उन्हें पार कर जानेवाले और अतएव (वक्षणासु) = [ वक्ष To grow ] आर्थिक, शारीरिक, मानस व बौद्ध सभी प्रकार की उन्नतियों में (सुधितम्) = उत्तमता से स्थापित, ऐसा होते हुए भी (अवेनन्तम्) = इन सांसारिक वस्तुओं की कामना न करते हुए [अकामयमानम्] अथवा 'अ' प्रभु की ही कामनावाले पुरुष का (माता) = यह निर्माण करनेवाली प्रकृति माता (तुषयन्ती) = जीव की उन्नति से अन्दर ही अन्दर सन्तोष का अनुभव करती हुई (बिभर्ति) = उसका भरण व पोषण करती है। प्रकृति उसे किसी आवश्यक वस्तु की कमी नहीं रहने देती। इन वस्तुओं के ठीक से प्राप्त होते रहने पर ही उन्नति स्थिर रहती है। प्रभु उत्साह देकर मन को उन्नत करते थे तो प्रकृति सब आवश्यक खान-पान का सामान प्राप्त कराके उसके शरीर को पुष्ट करती है और जीव को उन्नत होते हुए देखकर सन्तुष्ट होती है ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- प्रभु हमारे पिता हैं, वे हमारे में उत्साह का संचार करते हैं । प्रकृति माता है, वह हमारे खान-पान का पूरा ध्यान करती है ।
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (दशानाम् एकं कपिलं समानम्) दशानामिन्द्रियाणामेकं कमनीयम् “कमेः पश्च” [उणा० १।५५] समानभावेन वर्त्तमानमात्मानम् (तं पार्याय क्रतवे हिन्वन्ति) तं पारे भवाय मोक्षाय संसारे कर्मकरणाय च प्रेरयन्ति (वक्षणासु माता गर्भं सुधितम्-अवेनन्तम्) शरीरनदीषु नाडीषु “वक्षणाः नदीनाम” [निघ० १।१३] प्रकृतिर्माता गर्भं सुहितं सुधृतं वा गमनेऽकामयमानम् (तुषयन्ती बिभर्ति) तोषयन्ती धारयति ॥१६॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - One is the darling of all the ten equally, which they energise and serve for fulfilment of the ultimate purpose of life. Mother Nature bears the soul as its baby well placed in the currents and atomic dynamics of existence, nourishing and pleasing it, though the baby at this stage is unaware of it, but still loves to stay on in the womb.