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यस्या॑न॒क्षा दु॑हि॒ता जात्वास॒ कस्तां वि॒द्वाँ अ॒भि म॑न्याते अ॒न्धाम् । क॒त॒रो मे॒निं प्रति॒ तं मु॑चाते॒ य ईं॒ वहा॑ते॒ य ईं॑ वा वरे॒यात् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yasyānakṣā duhitā jātv āsa kas tāṁ vidvām̐ abhi manyāte andhām | kataro menim prati tam mucāte ya īṁ vahāte ya īṁ vā vareyāt ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यस्य॑ । अ॒न॒क्षा । दु॒हि॒ता । जातु॑ । आस॑ । कः । ताम् । वि॒द्वान् । अ॒भि । म॒न्या॒ते॒ । अ॒न्धाम् । क॒त॒रः । मे॒निम् । प्रति॑ । तम् । मु॒चा॒ते॒ । यः । ई॒म् । वहा॑ते । यः । ई॒म् । वा॒ । व॒रे॒ऽयात् ॥ १०.२७.११

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:27» मन्त्र:11 | अष्टक:7» अध्याय:7» वर्ग:17» मन्त्र:1 | मण्डल:10» अनुवाक:2» मन्त्र:11


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (यस्य-अनक्षा दुहिता) जिसके आश्रय नेत्र-हीन दर्शनशक्तिहीन-ज्ञान-शून्य जीवमात्र के लिये भाँति-भाँति के भोगों को दोहनेवाली प्रकृति (जातु-आस) किसी समय अर्थात् प्रलयकाल में वर्तमान थी (ताम्-अन्धां कः-विद्वान्-अभि मन्याते) उस अन्धी जैसी प्रकृति को कौन सर्वथा जानता है अर्थात् कोई नहीं जानता। (कतरः-तं मेनिं प्रति मुचाते) कौन ही उस वज्र जैसी प्रकृति से मुक्त होवे (यः-ईं वहति) जो इसको वहन-सहन करने में समर्थ होता है (यः-ईं वा वरेयात्) जो इसे स्वाधीन रखे-रखने में समर्थ हो ॥११॥
भावार्थभाषाः - ज्ञान-शून्य प्रकृति जीवमात्र के लिये विविध भोगों का दोहन करती है। जो प्रलयकाल में अपने रूप में रहती है, उसे कोई विद्वान् स्वरूपतः ठीक-ठीक नहीं जान सकता और न उससे मुक्त हो सकता है। उसके बन्धन में प्रत्येक जीव रहता है, परन्तु जो उसको ठीक सहन करने में समर्थ होता है, वह ही उससे मुक्त हो सकता है ॥११॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

प्रकृति वहन व प्रकृति परित्याग

पदार्थान्वयभाषाः - [१] प्रकृति जड़ है, ज्ञानशून्य है । प्रस्तुत मन्त्र में इसीलिए इसे 'अनक्षा' कहा गया है, यह (अनक्षा) = जड़ प्रकृति (यस्य) = जिसकी (दुहिता) = पूरक [दुह प्रपूरणे] आवश्यकताओं को पूर्ण करनेवाली (जातु आस) = कभी थी और इसीलिए (कः) = आनन्दमय जीवनवाला (विद्वान्) = समझदार पुरुष (ताम्) = उस प्रकृति को (अन्धाम्) = भोजन [पालन करनेवाली] (अभिमन्याते) = मानता है। वस्तुतः 'जब तक प्रकृति को हम शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति का साधन और उन साधनों को प्राप्त कराके अपना पालन करनेवाली समझेंगे तब तक' तो यह ठीक ही है यह हमें कुचलनेवाली तभी बनती है जब कि हम इसे भोग्य वस्तु समझकर, शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये नहीं, अपितु मौज के लिए समझने लगते हैं । [२] यदि प्रकृति मेरे लिये दुहिता ही बनी रहती है तो (कतरः) = वह अत्यन्त आनन्दमय प्रभु (तं प्रति) = उस प्रकृति में न फँसनेवाले पुरुष के प्रति (मेनिम्) = वज्र को, क्रियाशीलता को (मुचाते) = प्राप्त कराता है अथवा मेनिम् आदर को प्राप्त कराता है। उसके प्रति आदर को प्राप्त कराता है (यः) = जो (ईम्) = निश्चय से (वहाते) = इस प्रकृति का वहन करता है (वा) = परन्तु साथ ही (यः) = जो (ईम्) = निश्चय से (वरेयात्) = इसका निबारण करता है। प्रकृति का वहन करता, अर्थात् प्राकृतिक पदार्थों का शरीर यन्त्र के चालन के लिये प्रयोग करना और प्रकृति का निवारण करना, अर्थात् इसके अन्दर फँस न जाना। इस प्रकार प्रकृति के अन्दर रहकर भी उसमें न फँसता हुआ व्यक्ति प्रभु से आदर को प्राप्त करता है ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- हम प्राकृतिक पदार्थों का प्रयोग करें और उनमें आसक्त होकर उनका अतिभोग न कर बैठें।
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (यस्य अनक्षा दुहिता जातु आस) यस्याश्रये-अक्षिहिना द्रष्टृशक्तिहीना-ज्ञानशून्या प्रकृतिर्दुहिता जीववर्गाय विविधभोगानां  दोग्ध्री सा कदाचित् प्रलयकाले ह्यासीत् (ताम्-अन्धाम्-कः विद्वान्-अभि मन्याते) तामन्धामिव प्रकृतिं को विद्वानभिजानाति-सर्वथा जानाति न कश्चनेत्यर्थः (कतरः तं मेनिं प्रति मुचाते) तं वज्ररूपं “मेनिः वज्रनाम” [निघ० २।२०] प्रति मुचाते-त्यजति-त्यजेत् (यः-ईं वहति) य एव वोढुं समर्थो भवति (यः ईं वा वरेयात्) यश्च खलु स्वाधीने वृणुयात्-वर्त्तुं शक्नुयात् ॥११॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Who is the sage and scholar who knows that blind force, that eyeless generative power, Prakrti, mother womb of existence that was there in the pre existence state of divinity in absolute time and space? Indra, whose consort it was, the Shakti of divinity to generate the various forms of life in historical time and space. Who would wield that mighty force for himself as consort, as Word, as thunder? Who would release her? Who takes her on and controls? Who chooses and loves her? Who except Indra?