प्रकृति वहन व प्रकृति परित्याग
पदार्थान्वयभाषाः - [१] प्रकृति जड़ है, ज्ञानशून्य है । प्रस्तुत मन्त्र में इसीलिए इसे 'अनक्षा' कहा गया है, यह (अनक्षा) = जड़ प्रकृति (यस्य) = जिसकी (दुहिता) = पूरक [दुह प्रपूरणे] आवश्यकताओं को पूर्ण करनेवाली (जातु आस) = कभी थी और इसीलिए (कः) = आनन्दमय जीवनवाला (विद्वान्) = समझदार पुरुष (ताम्) = उस प्रकृति को (अन्धाम्) = भोजन [पालन करनेवाली] (अभिमन्याते) = मानता है। वस्तुतः 'जब तक प्रकृति को हम शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति का साधन और उन साधनों को प्राप्त कराके अपना पालन करनेवाली समझेंगे तब तक' तो यह ठीक ही है यह हमें कुचलनेवाली तभी बनती है जब कि हम इसे भोग्य वस्तु समझकर, शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये नहीं, अपितु मौज के लिए समझने लगते हैं । [२] यदि प्रकृति मेरे लिये दुहिता ही बनी रहती है तो (कतरः) = वह अत्यन्त आनन्दमय प्रभु (तं प्रति) = उस प्रकृति में न फँसनेवाले पुरुष के प्रति (मेनिम्) = वज्र को, क्रियाशीलता को (मुचाते) = प्राप्त कराता है अथवा मेनिम् आदर को प्राप्त कराता है। उसके प्रति आदर को प्राप्त कराता है (यः) = जो (ईम्) = निश्चय से (वहाते) = इस प्रकृति का वहन करता है (वा) = परन्तु साथ ही (यः) = जो (ईम्) = निश्चय से (वरेयात्) = इसका निबारण करता है। प्रकृति का वहन करता, अर्थात् प्राकृतिक पदार्थों का शरीर यन्त्र के चालन के लिये प्रयोग करना और प्रकृति का निवारण करना, अर्थात् इसके अन्दर फँस न जाना। इस प्रकार प्रकृति के अन्दर रहकर भी उसमें न फँसता हुआ व्यक्ति प्रभु से आदर को प्राप्त करता है ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- हम प्राकृतिक पदार्थों का प्रयोग करें और उनमें आसक्त होकर उनका अतिभोग न कर बैठें।