पदार्थान्वयभाषाः - [१] (अत्र इत् उ) = यहाँ योग के जीवन में निश्चय से तू (मे उक्तम्) = मेरे इस कथन को (सत्यं मंससे) = सत्य मानता है (यत्) = कि (द्विपात् च चतुष्पात् च) = दो पाँववाले और चारपावों वाले सभी को (संसृजानि) = मैं ही पैदा करता हूँ। इस प्रकार ये सारे प्राणी तेरे दृष्टिकोण में एक प्रभु के पुत्र होने से एक ही परिवार के हैं। तू इनके साथ अपना एकत्व देखता है। [२] ऐसा न करके, अर्थात् योगमार्ग पर न चल करके (यः) = जो भोगमार्ग पर चलता है, वह (स्त्रीभिः) = स्त्रियों के हेतु से, अर्थात् सांसारिक विलास की खातिर अत्र यहाँ मानव जीवन में (वृषणं) = उस शक्तिशाली प्रभु से (पृतन्यात्) = लड़ाई ठान लेता है, अर्थात् प्रभु का कभी भी ध्यान नहीं करता, उसे प्रभु ध्यान की प्रवृत्ति ही नहीं होती, वह प्रभु ध्यान के दो मुख्य समयों में प्रातः काल तो निद्रा देवी की गोद में होता है और सायं किसी क्लब में। इस प्रकार उसे प्रभु ध्यान का अवसर ही नहीं होता। ऐसा लगता है कि ध्यान से इसकी लड़ाई ही हो। [३] यह व्यक्ति (अयुद्धः) = काम, क्रोध, लोभ आदि से चलनेवाले सात्त्विक संग्राम को प्रारम्भ ही नहीं करता। इसके सुधार के लिये प्रभु कहते हैं कि मैं (अस्य) = इसके (वेदः) = धन को इससे (विभजानि) = विभक्त कर देता हूँ, पृथक् कर देता हूँ। धन के आधिक्य ने ही तो इसे भोगमार्ग का पथिक बना दिया था, धन से पृथक् करके प्रभु उस कारण को ही दूर करना आवश्यक समझते हैं जो इसे भोगासक्त किये हुए था ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ-योगी संसार में एकत्व देखता है । भोगी प्रभु को भूल जाता है। प्रभु इसके धन को नष्ट करके इसे ठीक मार्ग पर आ जाने का अवसर प्राप्त कराते हैं ।