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अत्रेदु॑ मे मंससे स॒त्यमु॒क्तं द्वि॒पाच्च॒ यच्चतु॑ष्पात्संसृ॒जानि॑ । स्त्री॒भिर्यो अत्र॒ वृष॑णं पृत॒न्यादयु॑द्धो अस्य॒ वि भ॑जानि॒ वेद॑: ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

atred u me maṁsase satyam uktaṁ dvipāc ca yac catuṣpāt saṁsṛjāni | strībhir yo atra vṛṣaṇam pṛtanyād ayuddho asya vi bhajāni vedaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अत्र॑ । इत् । ऊँ॒ इति॑ । मे॒ । मं॒स॒से॒ । स॒त्यम् । उ॒क्तम् । द्वि॒ऽपात् । च॒ । यत् । चतुः॑ऽपात् । स॒म्ऽसृ॒जानि॑ । स्त्री॒ऽभिः । यः । अत्र॑ । वृष॑णम् । पृ॒त॒न्यात् । अयु॑द्धः । अ॒स्य॒ । वि । भ॒जा॒नि॒ । वेदः॑ ॥ १०.२७.१०

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:27» मन्त्र:10 | अष्टक:7» अध्याय:7» वर्ग:16» मन्त्र:5 | मण्डल:10» अनुवाक:2» मन्त्र:10


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (अत्र-इत्-उ) इस जन्म में ही निश्चय (मे-उक्तं सत्यं मंससे) मेरे उक्त सत्य को तू जानता है (यत् द्विपात्-च चतुष्पात्) दो पैरवाला और चार पैरवाला जो प्राणी है (संसृजानि) उस सबको मैं परमात्मा उत्पन्न करता हूँ। (अत्र यो वृषणं पृतन्यात्) इस संसार में मुझ बलवान् के प्रति जो शत्रुता करता है, वह (स्त्रीभिः) स्त्रियों-बलहीन पुरुषों के समान है (अयुद्धः-अस्य वेदः-वि भजानि) मैं युद्ध न करते हुए भी इसके धन बलको उससे अलग कर देता हूँ ॥१०॥
भावार्थभाषाः - मनुष्य को यह बात निश्चय जाननी चाहिये कि दो पैरवाले और चार पैरवाले सभी प्राणी मात्र को परमात्मा उत्पन्न करता है। जो उस के प्रति विरोध करता है, वह उसे धन और बल से विहीन कर देता है ॥१०॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

योग व भोग

पदार्थान्वयभाषाः - [१] (अत्र इत् उ) = यहाँ योग के जीवन में निश्चय से तू (मे उक्तम्) = मेरे इस कथन को (सत्यं मंससे) = सत्य मानता है (यत्) = कि (द्विपात् च चतुष्पात् च) = दो पाँववाले और चारपावों वाले सभी को (संसृजानि) = मैं ही पैदा करता हूँ। इस प्रकार ये सारे प्राणी तेरे दृष्टिकोण में एक प्रभु के पुत्र होने से एक ही परिवार के हैं। तू इनके साथ अपना एकत्व देखता है। [२] ऐसा न करके, अर्थात् योगमार्ग पर न चल करके (यः) = जो भोगमार्ग पर चलता है, वह (स्त्रीभिः) = स्त्रियों के हेतु से, अर्थात् सांसारिक विलास की खातिर अत्र यहाँ मानव जीवन में (वृषणं) = उस शक्तिशाली प्रभु से (पृतन्यात्) = लड़ाई ठान लेता है, अर्थात् प्रभु का कभी भी ध्यान नहीं करता, उसे प्रभु ध्यान की प्रवृत्ति ही नहीं होती, वह प्रभु ध्यान के दो मुख्य समयों में प्रातः काल तो निद्रा देवी की गोद में होता है और सायं किसी क्लब में। इस प्रकार उसे प्रभु ध्यान का अवसर ही नहीं होता। ऐसा लगता है कि ध्यान से इसकी लड़ाई ही हो। [३] यह व्यक्ति (अयुद्धः) = काम, क्रोध, लोभ आदि से चलनेवाले सात्त्विक संग्राम को प्रारम्भ ही नहीं करता। इसके सुधार के लिये प्रभु कहते हैं कि मैं (अस्य) = इसके (वेदः) = धन को इससे (विभजानि) = विभक्त कर देता हूँ, पृथक् कर देता हूँ। धन के आधिक्य ने ही तो इसे भोगमार्ग का पथिक बना दिया था, धन से पृथक् करके प्रभु उस कारण को ही दूर करना आवश्यक समझते हैं जो इसे भोगासक्त किये हुए था ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ-योगी संसार में एकत्व देखता है । भोगी प्रभु को भूल जाता है। प्रभु इसके धन को नष्ट करके इसे ठीक मार्ग पर आ जाने का अवसर प्राप्त कराते हैं ।
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (अत्र-इत्-उ) अस्मिन् वर्त्तमाने जन्मन्येवावश्यम् (मे-उक्तं सत्यं मंससे) मम-उक्तं सत्यवचनं त्वं जानासि (यत् द्विपात्-च चतुष्पात्) यत् द्विपात् तथा चतुष्पात् प्राणी वर्त्तते (संसृजानि) सर्वमहं परमात्मा-उत्पादयामि (अत्र यो वृषणं पृतन्यात्) अस्मिन् संसारे यो मां बलवन्तं प्रति शत्रुतामाचरेत् सः (स्त्रीभिः) स्त्रीभिरिव बलहीनैः पुरुषैः समानोऽस्ति। (अयुद्धः-अस्य वेदः वि भजानि) अहं युद्धं न कुर्वन्नप्यस्य धनबलादिकं विभक्तमर्थात् तस्मात् पृथक् करोमि ॥१०॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - And here in the world, take it as my own word of truth that it is I who generate the biped humans and the quadruped animals, and whoever aspires to win as a virile warrior but with indulgence with women, I take off their share of the desired attainment even before or without the interaction between their ambition and nature.