पदार्थान्वयभाषाः - [१] हे (वृत्रहन्तम) = हमारे ज्ञान पर आवरणरूप इस काम को सर्वाधिक नष्ट करनेवाले (इन्दो) = शक्तिशालिन् व ऐश्वर्यशालिन् प्रभो ! (त्वम्) = आप (नः) = हमारे (इन्द्रस्य) = जितेन्द्रिय पुरुष के (शिवः सखा) = कल्याणकर व 'शो तनूकरणे' प्रज्ञान को क्षीण करनेवाले मित्र हैं। हमारे में से जो भी इन्द्रियों को जीतने का अभ्यास करता है, हे प्रभो ! आप उसके मित्र होते हैं, आप इसके लिए वृत्र का विनाश करनेवाले होते हैं। इस वृत्र का विनाश करके ही तो आप उसके अज्ञान को क्षीण करते हैं। अज्ञान को दूर करनेवाले 'शिव सखा' आप ही हैं। संसार में भी वही सच्चा मित्र है जो सद्बुद्धि दे, नेक सलाह दे । हाँ में हाँ मिलानेवाले तो सच्चे मित्र नहीं होते । [२] 'आप ही शिव सखा हैं' यही कारण है कि (यत्) = जो (तोकसातौ) = [तु-वृद्धि, पूर्ति, हिंसा] शत्रुओं की हिंसा के द्वारा वृद्धि व पूर्ति की प्राप्ति के निमित्त (समिथे) = संग्राम में, काम-क्रोधादि शत्रुओं के साथ चलनेवाले अध्यात्म संग्राम में (युध्यमाना:) = कामादि शत्रुओं से युद्ध करते हुए पुरुष (सीम्) = सर्वतः (हवन्ते) = आपको ही पुकारते हैं। वस्तुतः आपने ही तो विजय करनी है, व्यक्तियों के लिए इस विजय का सम्भव नहीं । [३] आप इस विजय को करवाइये ही, जिससे (वः) = आपकी प्राप्ति के (विमदे) = विशिष्ट आनन्द में विवक्षसे हम विशिष्ट उन्नति के लिये हों। बिना विजय के उन्नति नहीं और बिना आपकी कृपा के विजय नहीं ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - प्रभु ही हमारे शिव सखा हैं, ये ही हमें युद्ध में विजय प्राप्त कराते हैं ।