पदार्थान्वयभाषाः - [१] हे (सोम) = शान्त परमात्मन् ! (सुक्रतुः) = आप उत्तम संकल्पों, कर्मों व प्रज्ञानोंवाले हैं। (क्षेत्रवित्तरः) = हम सब के शरीररूप क्षेत्रों के उत्कृष्टता के साथ जाननेवाले हैं। सब क्षेत्रों में आप ही तो वस्तुतः क्षेत्रज्ञ हैं आप (वयोधेयाय) = हमारे में उत्कृष्ट जीवन के स्थापन के लिये सदा (जागृहि) = जागरित रहिये । आप ही हमारे अप्रमत्त रक्षक होंगे तभी तो हमारा जीवन शत्रुओं से आक्रान्त न होगा। [२] हे प्रभो ! आप (मनुषः) = मनुष्य में स्वभावतः उत्पन्न हो जानेवाले (द्रुहः) = द्रोह के भाव से तथा (अंहसः) = पाप से (नः) = हमें (पाहि) = बचाइये। ज्ञान की अल्पता के कारण आ जानेवाली इन मलिनताओं से आप ही हमें बचायेंगे । [३] इस द्रोह व पाप से हमारा रक्षण आप अवश्य करें ही, जिससे (वः) = आपकी प्राप्ति के (विमदे) = विशिष्ट आनन्द में (विवक्षसे) = हम विशिष्ट उन्नति के लिये हों । द्रोह व पाप की भावनावाला कोई भी व्यक्ति प्रभु-भक्त नहीं हो सकता और प्रभु- भक्त में द्रोह व पाप नहीं रह सकते। यह एकत्व को देखता है, सो द्रोह से ऊपर उठ जाता है, सदा 'सर्वभूतहिते रतः ' होता है ।
भावार्थभाषाः - प्रभु भावार्थ - प्रभु हमारे रक्षक हों, जिससे हम द्रोह व पाप से ऊपर उठे रहें । द्रोह व पाप हमें से दूर रखते हैं।