पदार्थान्वयभाषाः - [१] हे (सोम) = शान्त परमात्मन् ! (त्वम्) = आप (नः) = हमारे लिये (विश्वतः) = सब ओर से (अदाभ्यः) = न हिंसित होनेवाले (गोपाः) = रक्षक (भव) = होइये। जैसे एक ग्वाला गौवों का रक्षण अप्रमत्तता से करता है, उसी प्रकार प्रभु हमारा रक्षण करनेवाले हों । सांसारिक ग्वाले को कोई शत्रु मार भी सकता है और तब गौवों को हानि पहुँचा सकता है। पर प्रभु हमारे अहिंसित ग्वाले हैं। अहिंसित होते हुए वे प्रभु सब ओर से होनेवाले 'काम-क्रोध' आदि शत्रुओं के आक्रमणों से हमारी रक्षा करते हैं । [२] हे (राजन्) = हमारे जीवनों को व्यवस्थित करनेवाले प्रभो ! (स्त्रिधः) = इन शत्रुओं को (अपसेध) = हमारे से दूर भगाइये। इनका हमारे पर आक्रमण न हो सके। (नः) = हमें (दुःशंसः) = बुराइयों को शंसन करनेवाला, बुरी बातों को अच्छे रूप में चित्रित करनेवाली शक्ति (मा ईशत) = मत दबा ले। हम उसकी बातों में आकर मृगया आदि व्यसनों में न फँस जाएँ। [क] मृगया तो बड़ा सुन्दर व्यायाम है, [ख] इसमें चल लक्ष्य के वेधन में कितनी एकाग्रता का अभ्यास होता है, [ग] खेती की रक्षा के लिए मृग आदि पशुओं की वृद्धि को रोकना आवश्यक भी तो है और [घ] इस प्रकार तो उन्हें एक ही योनि से शीघ्र मुक्ति ही मिल रही होती है। इस प्रकार की सुन्दर लगनेवाली हम उसकी युक्तियों में फँस न जाएँ। हम तो (वः) = आपकी प्राप्ति के (विमदे) = विशिष्ट आनन्द में (विवक्षसे) = विशिष्ट उन्नति के लिए हों। यह होगा तभी जब कि हम प्रभु द्वारा रक्षित होंगे, प्रभु का रक्षण ही हमें कामादि के आक्रमण से बचा सकेगा।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - हम गौवें हों, प्रभु हमारे ग्वाले। तभी यह सम्भव होगा कि हम काम-क्रोधादि हिंस्र पशुओं के आक्रमण से बचे रहें ।