पदार्थान्वयभाषाः - [१] हे (सोम) = शान्त परमात्मन् ! (त्ये) = वे (निकामासः) = सांसारिक कामनाओं से ऊपर उठे हुए (धीराः) = धीर - ज्ञानी - पुरुष (गृत्सस्य) = मेधावी - सम्पूर्ण बुद्धि के स्रोत (तवसः) = शक्ति के दृष्टिकोण से महान्-प्रवृद्ध (तव) = आपकी (शक्तिभिः) = शक्तियों से (वः) = आपकी प्राप्ति के (विमदे) = विशिष्ट आनन्द में (गोमन्तम्) = उत्तम ज्ञानेन्द्रियोंवाले तथा (अश्विनम्) = उत्तम कर्मेन्द्रियों वाले (व्रजम्) = शरीररूपी बाड़े को (वि ऋणिवरे) = विशिष्टरूप से प्राप्त होते हैं और इस प्रकार विवक्षसे विशिष्ट उन्नति के लिये होते हैं । [२] प्रभु को प्राप्त वे ही होते हैं जो निकामासः - कामनाशून्य होते हैं । सांसारिक वस्तुओं की कामना से ऊपर उठकर ही प्रभु की प्राप्ति होती है। प्रभु मेधावी [गृत्स] व महान् [तवस्] हैं। प्रभु को प्राप्त करनेवाला भी मेधावी व महान् बनता है। यह धीर पुरुष प्रभु प्राप्ति के विशिष्ट आनन्द को अनुभव करता है । [३] प्रभु को प्राप्त करनेवाला, प्रभु की शक्ति से शक्ति-सम्पन्न होकर इस शरीररूप बाड़े में उत्तम ज्ञानेन्द्रिय व कर्मेन्द्रिय रूप गौवों व घोड़ोंवाला होता है। इसका शरीर व्रज है, ज्ञानेन्द्रियाँ गौवें हैं और कर्मेन्द्रियाँ घोड़े हैं । [४] इस प्रकार अपने शरीररूप बाड़े को उत्तम बनाकर, इस उत्तम इन्द्रियरूप गौवों व घोड़ों से यह निरन्तर उन्नतिपथ पर आगे बढ़ता है । यह सब प्रभु कृपा से होता है, प्रभु की शक्ति से शक्ति सम्पन्न होकर ही ऐसा होने का सम्भव होता है ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- हम काम से ऊपर उठकर प्रभु को प्राप्त करें। प्रभु कृपा से हमारा शरीर एक उत्तम बाड़े की तरह हो। इसमें ज्ञानेन्द्रियाँ उत्तम गौवें हों तथा कर्मेन्द्रियाँ उत्तम घोड़े हों ।