पदार्थान्वयभाषाः - [१] हे (सोम) = शान्त प्रभो ! गत मन्त्र के अनुसार आपके मित्र बननेवाले तथा सोम का रक्षण करनेवाले लोग (ते) = आपके (हृदिस्पृशः) = हृदय को स्पर्श करनेवाले होते हैं, अर्थात् आपको अत्यन्त प्रिय होते हैं। (ते) = वे आपके (विश्वेषु धामसु) = सब तेजों में (आसते) = स्थित होते हैं । आपके तेज के अंश से तेजस्वी बनते हैं, आपकी दिव्यता का उनमें अवतरण होता है । [२] इस दिव्यता के अवतरण के होने पर (अधा) = अब (वः) = आपकी प्राप्ति के (विमदे) = विशिष्ट आनन्द में (मम) = मेरे (इमे) = ये (वसूयवः) = धन प्राप्ति के साथ सम्बद्ध (कामाः) = काम (वितिष्ठन्ते) = रुक जाते हैं । 'तत्परं पुरुख्यातेर्गुण वैतृष्णयम्' इस योगसूत्र के अनुसार प्रभु का आभास होने पर संसार की तृष्णा ही नहीं रह जाती और यही 'पर-वैराग्य' है। प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि 'विमद' भी प्रभु की तेजस्विता का अनुभव करने पर इन सांसारिक कामनाओं से ऊपर उठ जाता है। [३] इनसे ऊपर उठकर ही वह विवक्षसे विशिष्ट उन्नति के लिए समर्थ होता है। कामासक्ति उत्थान की प्रतिबन्धिका होती है, निष्कामता ही सब उत्थानों का मूल है।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- सोम का रक्षण करनेवाला ही सच्चा प्रभु का प्रिय बनता है, प्रभु के तेज से तेजस्वी होता है और इसको सांसारिक वासनाएँ नहीं तृप्त करती ।