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अ॒यं विप्रा॑य दा॒शुषे॒ वाजाँ॑ इयर्ति॒ गोम॑तः । अ॒यं स॒प्तभ्य॒ आ वरं॒ वि वो॒ मदे॒ प्रान्धं श्रो॒णं च॑ तारिष॒द्विव॑क्षसे ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ayaṁ viprāya dāśuṣe vājām̐ iyarti gomataḥ | ayaṁ saptabhya ā varaṁ vi vo made prāndhaṁ śroṇaṁ ca tāriṣad vivakṣase ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒यम् । विप्रा॑य । दा॒शुषे॑ । वाजा॑न् । इ॒य॒र्ति॒ । गोऽम॑तः । अ॒यम् । स॒प्तऽभ्यः॑ । आ । वर॑म् । वि । वः॒ । मदे॑ । प्र । अ॒न्धम् । श्रो॒णम् । च॒ । ता॒रि॒ष॒त् । विव॑क्षसे ॥ १०.२५.११

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:25» मन्त्र:11 | अष्टक:7» अध्याय:7» वर्ग:12» मन्त्र:6 | मण्डल:10» अनुवाक:2» मन्त्र:11


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (अयम्) शान्तस्वरूप परमात्मा (दाशुषे विप्राय) स्वात्म-समर्पण-कर्ता स्तुति करनेवाले के लिये (गोमतः-वाजान्-इयर्त्ति) स्तुतियोग्य अमृत-अन्न भोगों को प्रदान करता है (अयं सप्तभ्यः) यह प्रगतिशील उपासकों के लिये (वरम्-आ) वरणीय मोक्ष-पद को प्राप्त कराता है। (अन्धं श्रोणं च प्र तारिषत्) भलीभाँति ध्यान करने योग्य और श्रवण करने योग्य उस मोक्षानन्द को बढ़ाता है (वः-मदे वि) हर्षनिमित्त विशेषरूप से हम तेरी स्तुति करते हैं (विवक्षसे) तू महान् है ॥११॥
भावार्थभाषाः - स्वात्मसमर्पण-कर्ता उपासक के लिये परमात्मा प्रशंसनीय अमृत भोगों को प्रदान करता है। उन प्रगतिशील उपासकों के लिये श्रवण करने योग्य उत्कृष्ट वर मोक्षाननद को बढ़ाता है। उसकी स्तुति करनी चाहिये ॥११॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

अन्धत्व व पंगुत्व का तिरसन

पदार्थान्वयभाषाः - [१] (अयम्) = यह सोम प्रभु ही (दाशुषे) = देने की वृत्तिवाले अथवा प्रभु के प्रति अपना अर्पण करनेवाले (विप्राय) = अपना विशेषरूप से पूरण करनेवाले पुरुष के लिए (गोमतः) = प्रशस्त इन्द्रियोंवाले (वाजान्) = - बलों को (इयर्ति) = प्राप्त कराते हैं । हम प्रभु के प्रति अपने को सौंपते हैं तो प्रभु हमें वह शक्ति प्राप्त कराते हैं जो हमारी इन्द्रियों को उत्तम बनाती है। इसी शक्ति को 'यशस्वी बल' कहा गया है । [२] इस प्रकार (अयम्) = यह प्रभु (सप्तभ्यः) = 'कर्णाविमौ नासिके चक्षणी मुखम् ' दो कान, दो नासिका, दो आँखें व मुख रूप सातों शरीरस्थ ऋषियों के लिए (आवरम्) = सब प्रकार से वरणीय धन को, शक्ति व प्रकाश को देते हैं। 'सब की सब इन्द्रियाँ सशक्त व प्रकाशमय बनें' इसके लिए आवश्यक है कि हम प्रभु का ध्यान करें, प्रभु के बनें। [३] जब हम प्रभु के बनते हैं तो वे प्रभु (अन्धम्) = अन्धे को व (श्रोणम्) = लंगड़े को भी (प्रतारिषत्) = उस अन्धत्व व पंगुत्व से तरा देते हैं । प्रभु कृपा से अन्धत्व से ऊपर उठकर हम दूरदृष्टि बनते हैं तथा पंगुत्व से ऊपर उठकर खूब गतिशील होते हैं। प्रभु कृपा हमारी ज्ञानेन्द्रियों को भी यशस्वी बनाती है और कर्मेन्द्रियों को भी शक्ति देती है। तभी (वः) = उस प्रभु की प्राप्ति के (विमदे) = विशिष्ट आनन्द में (विवक्षसे) = हम विशिष्ट उन्नति के लिये होते हैं ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - प्रभु कृपा ज्ञानेन्द्रियों को प्रकाशमय बनाती है तो कर्मेन्द्रियों को सशक्त । अन्धत्व व पंगुत्व दूर होकर हमारी उन्नति ही उन्नति होती है। सूक्त का प्रारम्भ इस प्रार्थना से हुआ है कि हमें 'भद्रता, दक्षता व क्रतु' प्राप्त हों। [१] सोमरक्षण से हम प्रभु के सच्चे भक्त बनें, [२] प्रभु प्राप्ति के लिए साधनभूत व्रतों का आचरण करें, [३] क्रतु के धारण करने पर ही जीवन उत्तम बनता है, [४] प्रभु कृपा से मेरा शरीर इन्द्रियरूप पशुओं के लिये उत्तम बाड़ा बने, [५] प्रभु हमारे काम-क्रोधरूप पशुओं को नियन्त्रण में रखें, [६] हम गौवें हों तो प्रभु हमारे अहिंसित ग्वाले, [७] वे हमें द्रोह व पाप से ऊपर उठायें, [८] प्रभु ही हमारे शिव सखा हैं, [९] वे हमारी बुद्धि का वर्धन करते हैं, [१०] और हमारे अन्धत्व व पंगुत्व को दूर करते हैं, [११] ये प्रभु ही हमें स्पृहणीय मनीषाएँ प्राप्त कराते हैं।
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (अयम्) एष शान्तस्वरूपः परमात्मा (दाशुषे विप्राय) स्वात्मसमर्पणं कृतवते स्तोत्रे (गोमतः वाजान् इयर्ति) स्तुतियोग्यान्-अमृतान्नभोगान् “अमृतोऽन्नं वै वाजः” [जै० ३।१८३] प्रेरयति प्रयच्छति (अयं सप्तभ्यः) एष सृप्तेभ्यः प्रगतिशीलेभ्य उपासकेभ्यः (वरम् आ) वरणीयं मोक्षपदमावहति। (अन्धं श्रोणं च प्र तारिषत्) आध्यानीयं श्रोतव्यं च “श्रोणं श्रोतव्यम्” [ऋक्० १।१६१।१० दयानन्दः] तेभ्यः मोक्षानन्दं प्रवर्धयति (वः मदे वि) त्वां हर्षनिमित्तं विशिष्टतया स्तुमः (विवक्षसे) त्वं महानसि ॥११॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - This Soma moves, inspires and brings immortal vision and food, energy and the joy of victory for the sage who has wholly surrendered himself to the divine presence. He saves the blind and the lame and brings the highest learning, wisdom and freedom to the seven sagely yajakas. O Soma, you are ever waxing great and glorious in bliss for the joy of all.