अन्धत्व व पंगुत्व का तिरसन
पदार्थान्वयभाषाः - [१] (अयम्) = यह सोम प्रभु ही (दाशुषे) = देने की वृत्तिवाले अथवा प्रभु के प्रति अपना अर्पण करनेवाले (विप्राय) = अपना विशेषरूप से पूरण करनेवाले पुरुष के लिए (गोमतः) = प्रशस्त इन्द्रियोंवाले (वाजान्) = - बलों को (इयर्ति) = प्राप्त कराते हैं । हम प्रभु के प्रति अपने को सौंपते हैं तो प्रभु हमें वह शक्ति प्राप्त कराते हैं जो हमारी इन्द्रियों को उत्तम बनाती है। इसी शक्ति को 'यशस्वी बल' कहा गया है । [२] इस प्रकार (अयम्) = यह प्रभु (सप्तभ्यः) = 'कर्णाविमौ नासिके चक्षणी मुखम् ' दो कान, दो नासिका, दो आँखें व मुख रूप सातों शरीरस्थ ऋषियों के लिए (आवरम्) = सब प्रकार से वरणीय धन को, शक्ति व प्रकाश को देते हैं। 'सब की सब इन्द्रियाँ सशक्त व प्रकाशमय बनें' इसके लिए आवश्यक है कि हम प्रभु का ध्यान करें, प्रभु के बनें। [३] जब हम प्रभु के बनते हैं तो वे प्रभु (अन्धम्) = अन्धे को व (श्रोणम्) = लंगड़े को भी (प्रतारिषत्) = उस अन्धत्व व पंगुत्व से तरा देते हैं । प्रभु कृपा से अन्धत्व से ऊपर उठकर हम दूरदृष्टि बनते हैं तथा पंगुत्व से ऊपर उठकर खूब गतिशील होते हैं। प्रभु कृपा हमारी ज्ञानेन्द्रियों को भी यशस्वी बनाती है और कर्मेन्द्रियों को भी शक्ति देती है। तभी (वः) = उस प्रभु की प्राप्ति के (विमदे) = विशिष्ट आनन्द में (विवक्षसे) = हम विशिष्ट उन्नति के लिये होते हैं ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - प्रभु कृपा ज्ञानेन्द्रियों को प्रकाशमय बनाती है तो कर्मेन्द्रियों को सशक्त । अन्धत्व व पंगुत्व दूर होकर हमारी उन्नति ही उन्नति होती है। सूक्त का प्रारम्भ इस प्रार्थना से हुआ है कि हमें 'भद्रता, दक्षता व क्रतु' प्राप्त हों। [१] सोमरक्षण से हम प्रभु के सच्चे भक्त बनें, [२] प्रभु प्राप्ति के लिए साधनभूत व्रतों का आचरण करें, [३] क्रतु के धारण करने पर ही जीवन उत्तम बनता है, [४] प्रभु कृपा से मेरा शरीर इन्द्रियरूप पशुओं के लिये उत्तम बाड़ा बने, [५] प्रभु हमारे काम-क्रोधरूप पशुओं को नियन्त्रण में रखें, [६] हम गौवें हों तो प्रभु हमारे अहिंसित ग्वाले, [७] वे हमें द्रोह व पाप से ऊपर उठायें, [८] प्रभु ही हमारे शिव सखा हैं, [९] वे हमारी बुद्धि का वर्धन करते हैं, [१०] और हमारे अन्धत्व व पंगुत्व को दूर करते हैं, [११] ये प्रभु ही हमें स्पृहणीय मनीषाएँ प्राप्त कराते हैं।