पदार्थान्वयभाषाः - [१] हे प्रभो! (नः) = हमारे (मनः) = मन को (भद्रम्) = कल्याण की (अपि) = ओर (वातय) = प्रेरित कीजिये। हमारा मन सदा शुभ कर्मों में ही प्रवृत्त हो। दुरितों से दूर, भद्र के समीप हम सदा रहें । [२] (दक्षम्) = हमारे मन को दक्ष उन्नति की ओर आप प्रेरित करिये। हमारा यह मन कभी अवनति की ओर न जाये । अथवा कार्यों को हम दक्षता से करनेवाले हों, हमारे कार्यों में अनाड़ीपन न टपके । कर्मों को कुशलता से करना ही तो योग है। हम इस योग को सिद्ध कर सकें। [३] (उत) = और (क्रतुम्) = हमारे मनों को आप यज्ञ की ओर प्रेरित करिये। 'यज्ञो वै श्रेष्ठतमं कर्म ' यज्ञ ही श्रेष्ठतम कर्म है। हमारा मन सदा इन उत्तम यज्ञात्मक कर्मों में प्रवृत्त रहे। एवं 'भद्र, दक्ष व क्रतु' ये हमारे ध्येय बन जायें। [४] (अधा) = अब मन की इस साधना के बाद (ते सख्ये) = आपकी मित्रता में तथा (अन्धसः) = आध्यानीय सोम [वीर्य] के (वि-मदे) = विशिष्ट मद [= हर्ष] में (वः रणन्) = हमारी इन्द्रियाँ आपके ही नामों का उच्चारण करें। इन इन्द्रियों का आपके स्तवन की ओर इस प्रकार रुझान हो कि (न गावः यवसे) = जिस प्रकार गौवें चारे की ओर झुकाव वाली होती हैं। गौवों का अपने हरे-भरे चारे की ओर झुकाव स्वाभाविक है, इसी प्रकार हमारी इन्द्रियाँ स्वभावतः आप की ओर झुकें। [५] यह सब हम इसलिये चाहते हैं कि (विवक्षसे) = विशिष्ट उन्नति की साधना कर सकें । उन्नति का मार्ग यही है कि हम प्रकृति- प्रवण न होकर आप की ओर झुकाव वाले हों। यह आपके नामों का उच्चारण हमारे सामने हमारे जीवन के लक्ष्य को स्थापित करेगा और हम निरन्तर उन्नतिपथ पर आगे बढ़नेवाले होंगे ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - हमारा मन 'भद्रता, दक्षता व क्रतु' की ओर प्रेरित हो। हम प्रभु के मित्र हों, सोम का रक्षण करें और हमारी इन्द्रियाँ प्रभु नामों का उच्चारण करें जिससे हम उन्नत ही उन्नत होते चलें।