देवों का शक्ति-सम्पन्न होना
पदार्थान्वयभाषाः - [१] जब 'अश्विनौ' अर्थात् प्राणापान अन्दर आते हैं और बाहर जाते हैं तो (समीच्यो:) = [सम्+अञ्च्] इन प्राणापानों के शरीर से संगत होने पर तथा (निष्पतनयोः) = बाहर जाने पर अर्थात् इन प्राणापान के विधारण व प्रच्छर्दन से (विश्वेदेवाः) = चक्षु आदि इन्द्रियों के रूप में स्थित सब देव (अकृपन्त) =[कृपू सामर्थ्ये] शक्तिशाली बनते हैं। प्राणसाधना से सब इन्द्रियों की शक्ति बढ़ती है। इसी में 'सुख' है । सब इन्द्रियों के स्वस्थ होने से जीवन का कार्यक्रम सुन्दरता से चलता है । [२] अब (देवा:) = ये देव (नासत्यौ) = इन प्राणापानों से (अब्रुवन्) = कहते हैं कि आप (पुनः) = फिर (आवहतात् इति) = हमें सब प्रकार से हमारे घर में प्राप्त करानेवाले होइये । अर्थात् आप की कृपा से हम फिर अपने मूल गृह 'ब्रह्मलोक' में पहुँच सकें। यह जीवन सुन्दरता से बीतेगा, तभी तो हम मोक्ष के भी अधिकारी समझे जाएँगे ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- प्राणापान के शरीर में आने-जाने की क्रिया से सब इन्द्रियाँ शक्तिशाली बनती हैं । और ये प्राणापान ही अन्ततः हमें मोक्ष प्राप्त कराते हैं।