पदार्थान्वयभाषाः - [१] गत मन्त्र में दी गई प्रभु प्रेरणा को सुनकर जीव प्रभु से कहता है कि हे प्रभो ! (त्वाम्) = आप को (यज्ञेभिः) = देव पूजनों से अर्थात् 'मातृ देवो भव, पितृ देवो भव, आचार्य देवो भव, अतिथि देवो भव' इस उपनिषद् वाक्य के अनुसार माता, पिता, आचार्य व अतिथियों के आदर से ज्ञान प्राप्ति के द्वारा तथा (उक्थैः) = स्तुति-वचनों से स्तवन के द्वारा और (हव्येभिः) = [ हु दानादनयोः] दानपूर्वक यज्ञशेष के सेवन के द्वारा (उप ईमहे) = समीप प्राप्त होकर आराधना करते हैं । प्रभु का आराधन देव-पूजन, स्तवन व हव्य के सेवन से होता है। ये तीन ही बातें ज्ञानकाण्ड, उपासनाकाण्ड व कर्मकाण्ड कहलाती हैं। [२] (शचीनां शचीपते) = प्रज्ञाओं [नि० ३ । ९] व शक्तियों के पति प्रभो ! (वः) = आपकी प्राप्ति के (विमदे) = विशिष्ट आनन्द के निमित्त (नः) = हमारे लिये (श्रेष्ठं वार्यं) = उत्तम वरणीय धन को (धेहि) = धारण कीजिये जिससे (विवक्षसे) = हम विशिष्ट उन्नति को कर सकें। श्रेष्ठ वरणीय धन वही है जो हमारी उन्नतियों का कारण बनता है, हमें प्रज्ञा व शक्ति सम्पन्न बनाकर प्रभु के समीप ले चलनेवाला होता है।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - हम 'यज्ञों, उक्थों व हव्यों' से प्रभु का आराधन करें। शक्ति व प्रज्ञा को प्राप्त करें तथा उस श्रेष्ठ वरणीय धन को प्राप्त करें जो कि हमारी उन्नति व हर्ष का कारण बने ।