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त्वां य॒ज्ञेभि॑रु॒क्थैरुप॑ ह॒व्येभि॑रीमहे । शची॑पते शचीनां॒ वि वो॒ मदे॒ श्रेष्ठं॑ नो धेहि॒ वार्यं॒ विव॑क्षसे ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tvāṁ yajñebhir ukthair upa havyebhir īmahe | śacīpate śacīnāṁ vi vo made śreṣṭhaṁ no dhehi vāryaṁ vivakṣase ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

त्वाम् । य॒ज्ञेभिः॑ । उ॒क्थैः । उप॑ । ह॒व्येभिः॑ । ई॒म॒हे॒ । शची॑ऽपते । श॒ची॒न॒म् । वि । वः॒ । मदे॑ । श्रेष्ठ॑म् । नः॒ । धे॒हि॒ । वार्य॑म् । विव॑क्षसे ॥ १०.२४.२

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:24» मन्त्र:2 | अष्टक:7» अध्याय:7» वर्ग:10» मन्त्र:2 | मण्डल:10» अनुवाक:2» मन्त्र:2


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (शचीनां शचीपते) हे नाना प्रकार के प्रजाहित कर्मों के कर्मपालक-कर्मों के पालन करानेवाले राजन् ! (त्वाम्) तुझे हम (यज्ञेभिः-उक्थैः-हव्येभिः) यज्ञिय भावनाओं, प्रशंसावचनों और उपहारों के द्वारा (उप-ईमहे “उपेमहे”) सत्कृत करते हैं। (नः-श्रेष्ठं वार्यं धेहि) हमारे लिए उत्तम वरण करने योग्य सुख को धारण करा। (वः-मदे वि) तुझे हर्ष के निमित्त विशेषरूप से हम प्रजाजन प्रशंसित करते हैं। (विवक्षसे) तू महत्त्व को प्राप्त हुआ है ॥२॥
भावार्थभाषाः - प्रजाजनों को प्रजाहित तथा राष्ट्रहित विविध कर्मों में प्रेरित करनेवाले राजा का यज्ञिय भावनाओं, प्रशंसावचनों और उपहारों के द्वारा सत्कार करना चाहिये, क्योंकि राजा उन्हें श्रेष्ठ और वाञ्छनीय सुख प्रदान करता है ॥२॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

'श्रेष्ठ वार्य' धन

पदार्थान्वयभाषाः - [१] गत मन्त्र में दी गई प्रभु प्रेरणा को सुनकर जीव प्रभु से कहता है कि हे प्रभो ! (त्वाम्) = आप को (यज्ञेभिः) = देव पूजनों से अर्थात् 'मातृ देवो भव, पितृ देवो भव, आचार्य देवो भव, अतिथि देवो भव' इस उपनिषद् वाक्य के अनुसार माता, पिता, आचार्य व अतिथियों के आदर से ज्ञान प्राप्ति के द्वारा तथा (उक्थैः) = स्तुति-वचनों से स्तवन के द्वारा और (हव्येभिः) = [ हु दानादनयोः] दानपूर्वक यज्ञशेष के सेवन के द्वारा (उप ईमहे) = समीप प्राप्त होकर आराधना करते हैं । प्रभु का आराधन देव-पूजन, स्तवन व हव्य के सेवन से होता है। ये तीन ही बातें ज्ञानकाण्ड, उपासनाकाण्ड व कर्मकाण्ड कहलाती हैं। [२] (शचीनां शचीपते) = प्रज्ञाओं [नि० ३ । ९] व शक्तियों के पति प्रभो ! (वः) = आपकी प्राप्ति के (विमदे) = विशिष्ट आनन्द के निमित्त (नः) = हमारे लिये (श्रेष्ठं वार्यं) = उत्तम वरणीय धन को (धेहि) = धारण कीजिये जिससे (विवक्षसे) = हम विशिष्ट उन्नति को कर सकें। श्रेष्ठ वरणीय धन वही है जो हमारी उन्नतियों का कारण बनता है, हमें प्रज्ञा व शक्ति सम्पन्न बनाकर प्रभु के समीप ले चलनेवाला होता है।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - हम 'यज्ञों, उक्थों व हव्यों' से प्रभु का आराधन करें। शक्ति व प्रज्ञा को प्राप्त करें तथा उस श्रेष्ठ वरणीय धन को प्राप्त करें जो कि हमारी उन्नति व हर्ष का कारण बने ।
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (शचीनां शचीपते) हे विविधप्रजाहितकर्मणां कर्मपालक राजन् ! (त्वाम्) त्वां वयम् (यज्ञेभिः-उक्थैः-हव्येभिः) यज्ञियभावनाभिः प्रशंसावचनैरुपहारैश्च (उप-ईमहे “उपेमहे”) उपमन्यामहे-सत्कुर्मः (नः श्रेष्ठं वार्यं धेहि) अस्मभ्यं श्रेष्ठं वरणीयं सुखं धारय (वः मदे वि) त्वां हर्षनिमित्तं प्रशंसामः (विवक्षसे) त्वं महत्त्वम्प्राप्तोऽसि ॥२॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - With yajnas, mantras and oblations of holy fragrances we adore and worship you, O lord of omniscience and omnipotence, and we pray that in the ecstasy of your own self and generosity, bear and bring us the best and choicest of your grand gifts for us. O lord, you are ever waxing great and glorious.