पदार्थान्वयभाषाः - [१] प्रभु अपने मित्र जीव को प्रेरणा देते हुए कहते हैं कि (इन्द्र) = हे जितेन्द्रिय पुरुष ! (इमं सोमं पिब) = इस सोम को तू शरीर में ही पीने का प्रयत्न कर । आहार से रस रुधिरादि क्रम से उत्पन्न हुआ हुआ यह (सोम) = वीर्य तेरे शरीर में ही व्याप्त हो जाए। (मधुमन्तम्) = यह अत्यन्त माधुर्य वाला है। शरीर में नीरोगता को, मन में निर्देषता को तथा बुद्धि में तीव्रता को जन्म देकर यह हमारे जीवनों को अतिशयेन मधुर बना देता है। (चमूसुतम्) = [चम्वोः द्यावापृथिव्योः = मस्तिष्क व शरीर ] यह सोम चमुओं, द्यावापृथिवियों, मस्तिष्क व शरीर के निमित्त ही पैदा किया गया है। शरीर को यह सब रोगों से बचाता है, और मस्तिष्क की तीव्रता को सिद्ध करता है । [२] प्रभु कहते हैं (व:) = तुम्हारे (विमदे) = विशिष्ट आनन्द के निमित्त (अस्मे) = हमारे (सहस्रिणम्) = हजारों की संख्या वाले अथवा प्रसन्नता को जन्म देनेवाले [स+हस्] (रयिम्) = धन को (निधारय) = निश्चय से धारण कर अथवा नम्रता से धारण कर । तुझे यह धन तो प्राप्त हो, परन्तु यह धन तुझे गर्वित न कर दे । [३] (पुरूवसो) = हे पालन व पूरण के लिये वसु - धन को प्राप्त करनेवाले जीव ! तू (विवक्षसे) = विशिष्ट उन्नति के लिये हो [ वक्ष To grow ] धन को प्राप्त करके तू धन का विनियोग इस प्रकार से कर कि यह धन जहाँ तेरे शरीर का पालन करे, उसे रोगाक्रान्त न होने दे, वहाँ तेरे मन का यह पूरण करनेवाला हो, तेरे मन में किसी प्रकार की ईर्ष्या-द्वेष आदि की अवाञ्छनीय भावनाएँ न उत्पन्न हो जाएँ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - हम वीर्य को शरीर में ही व्याप्त करें, यह हमारे जीवन को मधुर बनायेगा । हम धन को भी धारण करें, जो हमारे शरीर के पालन व पूरण का साधन बने ।