[ इन्द्र व विमद की] अटूट मित्रता
पदार्थान्वयभाषाः - [१] हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (तव) = आपकी (च) = और (ऋषेः विमदस्य) = तत्त्वज्ञानी विमद की (एना) = ये (सख्या) = मित्रताएँ (नः) = हमारे लिये (माकिः वियौषुः) = मत नष्ट हों। ये मित्रताएँ हमारे लिये कल्याणकर हों। हम प्रभु का स्तवन करनेवाले हों और निरभिमान तत्त्वज्ञानियों के सम्पर्क में रहनेवाले हों। [२] हे (देव) = प्रकाशमान प्रभो ! हम (हि) = निश्चय से (ते) = आपकी (प्रमतिम्) = प्रकृष्ट कल्याणी मति को (विद्मा) = जानें । (जामिवत्) = जैसे एक बहिन भाई की प्रमति को प्राप्त करती है अथवा जैसे एक बन्धु अपने बड़े बन्धु की सुमति को प्राप्त करता है। [३] (अस्मे) = हमारे लिये (ते) = आपकी (सख्या) = मित्रताएँ (शिवानि) = कल्याणकर (सन्तु) = हों। आपकी मित्रता में हमारे अकल्याण का सम्भव ही कहाँ ? वस्तुतः प्रभु की मित्रता अभिमानशून्य पुरुषों के साथ ही होती है। ये निरभिमानी सदा प्रभु के चरणों में अपने कर्मों का प्रणिधान करते हैं। यह प्रणिधान उन्हें अहंकार से दूर करता है । निरहंकारता उन्हें प्रभु जैसा बना देती है।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- हम विमद बनें, कर्मों द्वारा प्रभु का अर्चन करें। हमारी मित्रताएँ अनश्वर हों । सूक्त का प्रारम्भ इन शब्दों से हुआ है कि हम क्रियाकुशल प्रभु का पूजन करते हैं । [१] हम इन्द्रियों को जीतकर प्रभु-प्रवण बनायें, [२] प्रभु-भक्त हितरमणीय क्रियाओं वाला होता है, [३] यह अपने शरीर में सोम को सुरक्षित करके इसे निर्मल बनाता है, [४] हम वाग्वीर न बनकर सदा कर्मवीर बनें, [५] प्रभु गोपाल हों तो हम उनकी गौवें, [६] प्रभु के साथ हमारी मित्रता कभी नष्ट न हो, [७] इस मित्र का मौलिक प्रेरण यही है कि सोम का पान करो।