पदार्थान्वयभाषाः - [१] हे (इन्द्र) = शक्तियुक्त कर्मों के करनेवाले प्रभो ! (विमदाः) = मदशून्य व्यक्ति (सुदानवे) = उत्तम दानी व [दाप् लवने] पापों का खण्ड का खण्डन करनेवाले व [दैप शोधने] हमारे जीवनों को शुद्ध करनेवाले (ते) = तेरे लिये (अपूर्व्यं) = अद्भुत, इस स्वकर्म में निरत होने के द्वारा होनेवाले [स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य] (पुरुतमम्) = अधिक से अधिक लोकों का पालन व पूरण करनेवाले (स्तोमम्) = स्तुति को (अजीजनन्) = उत्पन्न करते हैं। अर्थात् कर्मों द्वारा आपकी अर्चन करते हैं । [२] इन कर्मों द्वारा होनेवाले स्तवन को यहाँ 'अपूर्व्य' कहा है। इस स्तवन में किसी शब्द का उच्चारण नहीं होता । बिना ही शब्दों के उच्चारण के चलनेवाला यह स्तवन प्रभु को अत्यन्त प्रिय है। इस स्तवन को 'विमद' ही कर पाते हैं। 'उत्तम कर्मों को करना और उन्हें परमेश्वरार्पण करते जाना' यह विमद का कार्यक्रम है। ये विमद प्रभु के आदेश के अनुसार यज्ञात्मक कर्मों में लगे रहते हैं और प्रभु कृपा से इनका योगक्षेम ठीक प्रकार से चलता है। यहाँ मन्त्र में कहते हैं कि (अस्य इनस्य) = इस ब्रह्माण्ड के स्वामी के (भोजनम्) = भोजन को, प्रभु से दिये गये भोजन को (हि) = निश्चय से (विद्मा) = जानते हैं। हमें यह तो निश्चय है कि हम कर्तव्यपालन करेंगे तो प्रभु भोजन अवश्य प्राप्त करायेंगे ही। यह होता तब है (यदा) = जब कि (पशुं न गोपाः) = पशु के लिये जैसे ग्वाला होता है, इसी प्रकार हम अपने लिये उस प्रभु को (करामहे) = करते हैं । हम भेड़े बनते हैं और प्रभु 'मेषपाल' हम बकरियाँ तो प्रभु 'अजपाल' हम गौवें तो प्रभु 'गोपाल' । प्रभु हमारे चरवाहे हैं, वे हमें चारा देते ही हैं।
भावार्थभाषाः - भावार्थ-लोकहित के कार्यों में लगे हुए हम प्रभु के सच्चे स्तोता बनते हैं। प्रभु गोपाल -हैं, तो हम उनकी गौवें ।