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सो चि॒न्नु वृ॒ष्टिर्यू॒थ्या॒३॒॑ स्वा सचाँ॒ इन्द्र॒: श्मश्रू॑णि॒ हरि॑ता॒भि प्रु॑ष्णुते । अव॑ वेति सु॒क्षयं॑ सु॒ते मधूदिद्धू॑नोति॒ वातो॒ यथा॒ वन॑म् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

so cin nu vṛṣṭir yūthyā svā sacām̐ indraḥ śmaśrūṇi haritābhi pruṣṇute | ava veti sukṣayaṁ sute madhūd id dhūnoti vāto yathā vanam ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सो इति॑ । चि॒त् । नु । वृ॒ष्टिः । यू॒थ्या॑ । स्वा । सचा॑ । इन्द्रः॑ । श्मश्रू॑णि । हरि॑ता । अ॒भि । प्रु॒ष्णु॒ते॒ । अव॑ । वे॒ति॒ । सु॒ऽक्षय॑म् । सु॒ते । मधु॑ । उत् । इत् । धू॒नो॒ति॒ । वातः॑ । यथा॑ । वन॑म् ॥ १०.२३.४

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:23» मन्त्र:4 | अष्टक:7» अध्याय:7» वर्ग:9» मन्त्र:4 | मण्डल:10» अनुवाक:2» मन्त्र:4


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (सा-उ चित्-नु वृष्टिः) वह ही उत्तम सुखवृष्टि राष्ट्र में होती है, जिससे (इन्द्रः स्वा यूथ्या सचा) राजा अपनी यूथरूप सभा के साथ (हरिता श्मश्रूणि) हरित रङ्गवाले हरे-भरे धान्यतृणों को (अभि प्रुष्णुते) अभिषिक्त मानता है, तब ही (सुक्षयम्-अव वेति) उत्तमस्थान राष्ट्र को प्राप्त होता है (सुते) निष्पन्न (मधु) मधुमय राष्ट्र में (इत्) अवश्य (उत्-धूनोति) विरोधी को कम्पाता है (वातः-यथा वनम्) प्रबल वायु जैसे वन को कम्पाता है ॥४॥
भावार्थभाषाः - राष्ट्र में उत्तम वृष्टि होने पर राजा सभा के साथ हरे-भरे कृषि धान्यों को देखकर अपने को सफल मानता है और विरोधी दुष्टकाल आदि को नष्ट करता है ॥४॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

सुक्षयम् [उत्तम गृह]

पदार्थान्वयभाषाः - [१] (स उ) = और वह (इन्द्रः) = जितेन्द्रिय पुरुष (चित् नु) = निश्चय से अब (वृष्टिः) = सब पर सुखों की वर्षा करनेवाला होता है। यह प्रभु-भक्त सर्वभूत हितरत हो जाता है और (स्वा) = अपने (यूथ्या) = यूथ में, समूह में होनेवाले ज्ञानेन्द्रिय, कर्मेन्द्रिय, प्राण व अन्तःकरण के पञ्चकों को (सचान्) = उस प्रभु से मेल वाला करता है [ षच समवाये] । [२] (इन्द्रः) = यह जितेन्द्रिय पुरुष (श्मश्रूणि) = शरीर में आश्रित 'इन्द्रियों, मन व बुद्धि' को (हरिता) = सब मलों का हरण करनेवाले सोम [वीर्य] कणों से (अभिप्रुष्णुते) = सींचता है । सोम के रक्षण से इसकी ऊर्ध्वगति होकर यह शरीर में व्याप्त होता है। शरीर को तो यह नीरोग बनाता है, मन को निर्मल तथा बुद्धि को यह तीव्र करता है। [३] इस प्रकार इस सोम के रक्षण व सोम के द्वारा 'इन्द्रियों, मन व बुद्धि' के सेचन से यह (सुक्षयम्) = उत्तम शरीररूप गृह को (अव वेति) = आभिमुख्येन प्राप्त होता है । [४] (सुते) = सोम के उत्पन्न होने पर (मधु) = यह सब भोजन के रूप में खायी हुई ओषधियों का सारभूत सोम (इत्) = निश्चय से (उत् धूनोति) = सब मलों को इस प्रकार कम्पित कर देता है (यथा) = जैसे (वातः) = वायु (वनम्) = वन को । वायु से पत्ते हिलते हैं और उनपर पड़ी हुई मट्टी कम्पित होकर दूर हो जाती है, इसी प्रकार सोम शरीर में व्याप्त होकर सब इन्द्रियों, मन व बुद्धि को निर्मल कर देता है ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- सोम शरीर में सुरक्षित होकर शरीर को निर्मल बनानेवाला होता है ।
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (सा-उ चित्-नु वृष्टिः) सैव खलूत्तमा सुखवृष्टी राष्ट्रे, यया (इन्द्रः, स्वा यूथ्या सचा) राजा “स्वा” स्वया, यूथ्या यूथया साकम् (हरिता श्मश्रूणि) हरितवर्णानि कृषिभूमेर्धान्यतृणानि (अभि प्रुष्णुते) अभिषिक्तानि मन्यते “ष्णु प्रस्रवणे” [अदादि०] तदा हि (सुक्षयम्-अव वेति) उत्तमस्थानं राष्ट्रं प्राप्नोति (सुते) निष्पन्ने (मधु) मधुनि-मधुमये राष्ट्रे (इत्) एव (उद्-धूनोति) विरोधिनं कम्पयति (वातः-यथा वनम्) प्रबलो वायुर्यथा वनं कम्पयति ॥४॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - The real shower is that when with his own essential lustre and with his complementary forces Indra sprinkles and fills the waving greenery on earth with life energy, when the divine presence pervades happy homes and weaves them into a happy web of life on earth with sweets of life, vibrates with power and shakes contradictory forces as the storm shakes the forest.