पदार्थान्वयभाषाः - [१] (स उ) = और वह (इन्द्रः) = जितेन्द्रिय पुरुष (चित् नु) = निश्चय से अब (वृष्टिः) = सब पर सुखों की वर्षा करनेवाला होता है। यह प्रभु-भक्त सर्वभूत हितरत हो जाता है और (स्वा) = अपने (यूथ्या) = यूथ में, समूह में होनेवाले ज्ञानेन्द्रिय, कर्मेन्द्रिय, प्राण व अन्तःकरण के पञ्चकों को (सचान्) = उस प्रभु से मेल वाला करता है [ षच समवाये] । [२] (इन्द्रः) = यह जितेन्द्रिय पुरुष (श्मश्रूणि) = शरीर में आश्रित 'इन्द्रियों, मन व बुद्धि' को (हरिता) = सब मलों का हरण करनेवाले सोम [वीर्य] कणों से (अभिप्रुष्णुते) = सींचता है । सोम के रक्षण से इसकी ऊर्ध्वगति होकर यह शरीर में व्याप्त होता है। शरीर को तो यह नीरोग बनाता है, मन को निर्मल तथा बुद्धि को यह तीव्र करता है। [३] इस प्रकार इस सोम के रक्षण व सोम के द्वारा 'इन्द्रियों, मन व बुद्धि' के सेचन से यह (सुक्षयम्) = उत्तम शरीररूप गृह को (अव वेति) = आभिमुख्येन प्राप्त होता है । [४] (सुते) = सोम के उत्पन्न होने पर (मधु) = यह सब भोजन के रूप में खायी हुई ओषधियों का सारभूत सोम (इत्) = निश्चय से (उत् धूनोति) = सब मलों को इस प्रकार कम्पित कर देता है (यथा) = जैसे (वातः) = वायु (वनम्) = वन को । वायु से पत्ते हिलते हैं और उनपर पड़ी हुई मट्टी कम्पित होकर दूर हो जाती है, इसी प्रकार सोम शरीर में व्याप्त होकर सब इन्द्रियों, मन व बुद्धि को निर्मल कर देता है ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- सोम शरीर में सुरक्षित होकर शरीर को निर्मल बनानेवाला होता है ।