पदार्थान्वयभाषाः - [१] हे (शूर) = हमारे शत्रुओं का हिंसन करनेवाले (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (त्वं नः) = आप ही हमारे हो । (उत) = और (शूरैः) = अध्यात्म में सब आधि-व्याधियों को नष्ट करनेवाले मरुत् संज्ञक प्राणों के द्वारा (बर्हणा) = रोगों व दोषों के (उद्धर्हण) = विनाश से (त्वा) = आप द्वारा (ऊतासः) = रक्षित हुए- हुए हम होते हैं। प्रभु ने शरीर में प्राणों का स्थापन इस रूप में किया है कि यदि हम इनकी साधना करके प्राणशक्ति का वर्धन कर लें तो रोग ही नहीं, ईर्ष्या-द्वेष आदि मानस दोष भी नष्ट हो जाएँगे, और आधि-व्याधियों से शून्य यह जीवन अतिसुन्दर बन जायेगा। [२] हे प्रभो ! (यथा) = जैसे (क्षोणयः) = मनुष्य (नवन्त) = आपके समीप आते हैं [नवतिर्गतिकर्मा] उसी प्रकार (ते) = आपकी (पुरुत्रा) = पालक, पूरक व रक्षक (विपूर्तयः) = विशिष्ट रूप से कामनाओं की पूर्तियाँ होती हैं। प्रभु हमारी गलत इच्छाओं को तो पूर्ण नहीं करते, परन्तु 'आयु, प्राण, प्रजा, पशु, कीर्ति, द्रविण व ब्रह्मवर्चस्' आदि में जिस भी पदार्थ की हम कामना करते हैं प्रभु हमें वे ही पदार्थ देते हैं । इन पदार्थों की आसक्ति से ऊपर उठने पर प्रभु हमें मोक्ष का भी पात्र बनाते हैं ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - प्रभु ही प्राणशक्ति के द्वारा हमारी नीरोगता की व्यवस्था करते हैं और हमारी सब उचित कामनाओं को वे प्रभु ही पूर्ण करते हैं ।