पदार्थान्वयभाषाः - [१] गत मन्त्र में 'अमानुष' के विनाशक बल की आराधना की गई थी। प्रस्तुत मन्त्र में उसी 'अमानुष' का स्पष्टीकरण करते हुए कहते हैं कि यह (अकर्मा) = [अविद्यमानयागादि कर्मा सा० ] यह यज्ञादि उत्तम कर्मों में कभी प्रवृत्त नहीं होता। [२] यज्ञादि कर्मों में प्रवृत्त होना तो दूर रहा, यह (दस्युः) = [उपक्षपयिता] औरों के विनाशकारी कर्मों में प्रवृत्त होता है, इसको दूसरों के कार्यों में विघ्न करना ही रुचिकर होता है। दूसरों की हानि में यह मजा लेता है। [३] यह (नः) = हमारा (अभि) = लक्ष्य करके (अमन्तुः) = न विचार करनेवाला है। जगत् को यह अनीश्वर मानता है। ईश्वर की सत्ता को न मानता हुआ, यह संसार को 'अपरस्पर संभूत-कामहैतुक' मानता है। इसके प्रातः- सायं प्रभु के ध्यान करने का प्रश्न ही नहीं उठता। [४] (अन्यव्रतः) = श्रुति प्रतिपादित कर्मों को न करके अन्य कर्मों में ही यह व्यापृत रहता है। 'धर्मं जिज्ञासमानानां प्रमाणं परमं श्रुतिः '-' धर्म को जानने की इच्छा वालों के लिये श्रुति ही परम प्रमाण है' ये मनु के शब्द इनको इष्ट नहीं हैं। ये श्रुति विरुद्ध कर्मों में ही आनन्द लेने का प्रयत्न करते हैं । [५] (अमानुषः) = ये क्रूर स्वभाव के राक्षस होते हैं। इनमें मनुष्यता नहीं है। ये [Humane] = दयालु न होकर Inhumane = क्रूर व बर्बर होते हैं। [६] हे (अमित्रहन्) = हमारे शत्रुओं के नष्ट करनेवाले प्रभो ! (त्वं) = आप ही (तस्य दासस्य) = उस औरों का नाश करनेवाले के (वधः) = मारनेवाले हो। इस दस्यु का नाश आप ही कर सकते हो । सो कृपया (दम्भय) = इस को आप नष्ट करिये। राष्ट्र में राजा प्रभु का ही प्रतिनिधि होता है। सो राजा का यह कर्तव्य है कि वह इन अमानुष लोगों को नष्ट करके प्रजा का उचित रक्षण करें। ऐसे लोगों से पीड़ित हुई हुई प्रजायें उन्नति के मार्ग पर आगे नहीं बढ़ पाती। इन से आनेवाले कष्ट कहलाते हैं।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- ' अकर्मा, दस्यु, अमन्तु, अन्यव्रत, अमानुष' पुरुष ही दास हैं। इनसे भिन्न आर्य हैं। प्रभु कृपा से व राज- प्रयत्न से राष्ट्र में आर्यों का वर्धन व दासों का वध हो ।