पदार्थान्वयभाषाः - [१] (अध) = अब, साधना के लिये प्रयत्न करने के उपरान्त (उशना:) = जीवनयात्रा को पूर्ण करके प्रभु प्राप्ति की प्रबल कामना वाला यह साधक, (ग्मन्ता) = निरन्तर बाह्य विषयों में जाती हुई (वां) = तुम दोनों-ज्ञानेन्द्रियों व कर्मेन्द्रियों से (पृच्छते) = पूछता है कि तुम (कदर्था) = क्यों [किमर्थम् ] (दिवः ग्मः च) = द्युलोक के व पृथ्वीलोक के (पराकाद्) = दूर-दूर देशों से इस (मर्त्यम् गृहम्) = मनुष्य के घर में (न आजग्मथुः) = नहीं आते हो। [२] यह शरीर 'मर्त्य गृह' है । मरणाधर्मा होने से 'मर्त्य' है, जीव का निवास स्थान होने से 'गृह' है। इन्द्रियाँ सामान्यतः बाह्य विषयों में भटकती हैं। विषयों की चमक उनको सदा अपनी ओर खैंचती है । कोई एक आध वीर पुरुष ही इनको विषय- व्यावृत्त करके शरीर रूप गृह में ही स्थापित कर पाता है। जब ये अवस्थित हो जाती हैं तभी हम अपने स्वरूप में स्थित हो पाते हैं। यही उपनिषदों के शब्दों में 'परमागति' कहलाती है । द्युलोक व पृथ्वीलोक के दूर-दूर देशों में भटकनेवाली ये इन्द्रियाँ निरुद्ध होकर आत्मदर्शन के लिये सहायक होती हैं। तभी कैवल्य प्राप्त होता है, तभी हम प्रभु में विचरण करनेवाले बनते हैं ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- इन्द्रियों को दूर-दूर देशों से लौटाकर हम शरीर गृह में ही निरुद्ध करें, तभी हम आत्मदर्शन करते हुए प्रभु को पानेवाले बनेंगे ।