पदार्थान्वयभाषाः - [१] (त्वम्) = हे (इन्द्र) = इन्द्रियों के अधिष्ठाता जीव ! तू (त्या) = उन (वातस्य) = वायु के (चित्) = भी (अश्वा) = घोड़ों को अर्थात् वायु के समान वेगवान् व बलवान् इन्द्रियाश्वों को (आगा:) = सर्वथा प्राप्त होता है । ये इन्द्रियाश्व तेरे अधिष्ठातृत्व में (ऋज्रा) = ऋजु मार्ग से चलनेवाले हैं। तू इन्हें (त्मना) = स्वयं (वहध्यै) = वहन के लिये प्राप्त होता है। तू इनका अधिष्ठाता बनता है, ये तुझे इधर-उधर भटकानेवाले नहीं होते । [२] तू उन ज्ञानेन्द्रिय व कर्मेन्द्रिय रूप अश्वों को लक्ष्य स्थान की ओर ले चलता है, (ययोः) = जिनका (यन्ता) = काबू करनेवाला (न देवः) = न तो देव है, (न) = और ना ही (मर्त्यः) = मनुष्य | बड़े-बड़े विद्वान् भी इन इन्द्रियाश्वों को काबू नहीं कर पाते, मनुष्य की तो क्या शक्ति है कि इन्हें काबू कर सके ? इन इन्द्रियाश्वों की शक्ति को (विदाय्यः) = जाननेवाला भी (नकिः) = कोई नहीं है । 'इन्द्रियाणि प्रमाथीनि' इन शब्दों के अनुसार ये इन्द्रियाँ मनुष्य को कुचल देनेवाली हैं। इनका संयम सुगम नहीं। इतनी प्रबल शक्ति वाली भी इन इन्द्रियों को वह जीव, जो कि प्रभु का प्रिय पुत्र बनने का प्रयत्न करता है, अपने वश में करके ऋजु मार्ग से जीवनयात्रा में आगे बढ़ता है।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- इन्द्रियों को वश में करना कठिन है। एक साधक ही इन इन्द्रियों को वश में करके जीवनयात्रा को सिद्ध करता है।