प्रभु का प्रिय पुत्र कौन ?
पदार्थान्वयभाषाः - [१] (वातस्य धुनी) = वायु को भी प्रेरित करनेवाले अर्थात् वायु से भी तीव्र गति वाले (अश्वा) = ज्ञानेन्द्रिय व कर्मेन्द्रियरूप अश्वों को (युजानः) = शरीर रूप रथ में जोड़नेवाला यह होता है। इसका जीवन सतत क्रियामय होता है। इस क्रियामय जीवन के कारण ही (देवः) = यह देव बनता है । इसका जीवन दिव्यगुणों वाला व प्रकाशमय होता है। [२] इस (देवस्य) = प्रकाशमय जीवन वाले (वज्रिव:) = क्रियाशीलता रूप वज्र को हाथों में धारण करनेवाले पुरुष के इन्द्रियाश्व (विरुक्मता) = विरोचमान, अर्थात् अमलिन पापशून्य पवित्र (पथा) = मार्ग से (स्यन्ता) = [स्यन्तौ गच्छन्तौ] चलनेवाले होते हैं। इसकी ज्ञानेन्द्रियाँ ज्ञान प्राप्ति में लगी रहती हैं और कर्मेन्द्रियों से यह यज्ञादि उत्तम कर्मों में लगा रहता है। इस प्रकार इसकी इन्द्रियों का मार्ग सदा देदीप्यमान व प्रशस्त होता है । [३] यह (अध्वनः सृजानः) = मार्ग से धनों का सर्जन करता है। उत्तम मार्ग से धनों को कमाता है 'अग्ने नय सुपथा राये'। यह इस बात को समझता है कि धन के बिना यह निधन के ही मार्ग पर जाएगा। धन ही उसे धन्य बनानेवाला है, बशर्ते कि वह धन का दास न बन जाए और धन का स्वामी ही बना रहे 'वयं स्याम पतयो रयीणाम्' । [४] धन का दास न बनने के लिये ही (स्तोषि) = तू प्रभु का स्तवन करता है। यह प्रभु स्तवन तुझे शक्ति देता है और तेरे समाने ये संसार के प्रलोभन अत्यन्त तुच्छ हो जाते हैं। वस्तुतः तभी तू प्रभु का प्रिय पुत्र बन पाता है । से
भावार्थभाषाः - भावार्थ - हमारे इन्द्रियाश्व क्रियामय हों, विरोचमान मार्ग से ये चलनेवाले हों, धर्म धनार्जन करते हुए हमें प्रभु-स्तवन सदा मार्गभ्रष्ट होने से बचाये ।