पदार्थान्वयभाषाः - [१] गत मन्त्र में हमारे से स्तुति किये जानेवाले प्रभु वे हैं (यः) = जो कि (महः शवसः) = महान् बल के (पतिः) = स्वामी हैं । उस प्रभु की शक्ति अनन्त है, उसकी शक्ति महनीय है । [२] वे प्रभु (महो नृम्णस्य) = महान् धन के (असामि) = पूर्णरूपेण (आतूतुजि:) = सब प्रकार से हमारे में प्रेरक हैं। अर्थात् प्रभु कृपा से हमें वह महनीय धन प्राप्त होता है जो कि हमारे सब सुखों का साधन बनता है । [३] वे प्रभु (वज्रस्य) = [वज गतौ] गतिशील और अतएव (धृष्णोः) = कामादि शत्रुओं का धर्षण करनेवाले व्यक्ति का भर्ता भरण करनेवाले हैं। (इव) = उसी प्रकार भरण करनेवाले हैं जैसे कि (पिता) = एक पिता (प्रियं पुत्रम्) = प्रिय पुत्र का भरण करता है। 'स्वास्थ्य, सदाचार व स्वाध्याय' आदि गुणों से पिता को प्रीणित करनेवाला पुत्र पिता के लिये सदा प्रिय होता है और पिता उसका अवश्य भरण करते हैं । इसी प्रकार क्रियाशील व कामादि से युद्ध करके उनके धर्षण में प्रवृत्त जीव प्रभु का प्रिय होता है और प्रभु इसे महनीय शक्ति व धन प्राप्त कराते हैं। इन्हें प्राप्त करके यह उन्नतिपथ पर अग्रसर होता है।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - प्रभु अनन्त शक्ति के स्वामी हैं, वे हमारे में शक्ति व धन को प्रेरित करते हैं, जिससे उन्नत होकर हम प्रभु के प्रिय पुत्र बन पायें ।