पदार्थान्वयभाषाः - [१] (कुह) = कहाँ (इन्द्रः) = वह परमैश्वर्यशाली प्रभु (श्रुतः) = सुना जाता है। अर्थात् प्रभु की आवाज को कौन-सी योनि में आत्मा सुन पाती है ? (अद्य) = आज (कस्मिन् जने) = किस व्यक्ति में (मित्रो न) = मित्र के समान (श्रूयते) = वह प्रभु सुना जाता है। जैसे एक मित्र की वाणी को हम सुनते हैं उसी प्रकार उस महान् मित्र प्रभु की वाणी को कौन सुनता है ? इस संसार में प्रायः एक मित्र दूसरे मित्र को सलाह देता हुआ झिझकता है, प्रायः दूसरा व्यक्ति अपने मित्र की ठीक सम्मति को सुनने को तैयार भी नहीं होता । प्रभु सलाह तो सदा देते ही हैं, पर प्रायः हम उस सलाह को सुनते नहीं हैं ? [२] ये प्रभु वे हैं (यः वा) = जो कि या तो (ऋषीणां क्षये) = तत्त्वद्रष्टाओं के घरों में (वा) = अथवा (गुहा) = बुद्धि व हृदयदेश में (गिरा) = वाणियों के द्वारा (चर्कृषे) = सदा आकृष्ट किये जाते हैं । अर्थात् प्रभु की वाणी ऋषियों के घरों में सुन पाती है अथवा हृदयदेश में उस प्रभु का ध्यान करनेवाले लोग ही स्तुति द्वारा उस प्रभु को अपनी ओर आकृष्ट करनेवाले होते हैं ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- प्रभु की वाणी को विरल ही सुननेवाले होते हैं। ऋषियों के गृहों में प्रभु-स्तवन होता है और हृदयदेश में प्रभु ध्यान चलता है।