पदार्थान्वयभाषाः - [१] हे (अग्ने) = प्रगतिशील जीव ! तू (शुक्रेण शोचिषा) = क्रियामय [शुक गतौ] ज्ञानदीप्ति के द्वारा (उरु) = हृदय की विशालता के साथ तथा (बृहत्) = अंग-प्रत्यंग की शक्ति को वृद्धि के साथ (प्रथयसे) = अपना विस्तार करनेवाला होता है। क्रिया व ज्ञान के समन्वय से इसकी भौतिक व अध्यात्मिक दोनों प्रकार की उन्नति होती है । 'उरु' अध्यात्म उन्नति का संकेत करता है तो बृहत् = भौतिक उन्नति का । एवं उन्नति में 'अभ्युदय व निः श्रेयस' दोनों का स्थान है। दोनों का समन्वय ही वास्तविक धर्म है 'यतोऽभ्युदयनिः श्रेयससिद्धिः स धर्मः ' । [२] हे अग्रेणी जीव ! तू (अभिक्रन्दन्) = दिन के प्रारम्भ व अन्त में, अर्थात् दोनों समय उस प्रभु का आह्वान करता हुआ वृषायसे- एक शक्तिशाली पुरुष की तरह आचरण करता है। प्रभु स्मरण से प्रभु की समीपता में यह उसी प्रकार सशक्त बन जाता है जैसे कि माता के अंक में स्थित बालक शक्ति को अनुभव करता है और निर्भीक होता है। [३] हे प्रभो ! (वः) = आपकी प्रति के (विमदे) = विशिष्ट आनन्द के निमित्त यह (गर्भं दधासि) = हिरण्यगर्भ नामक आपका धारण करता है। आप सभी को अपने में धारण करने से 'गर्भ' हैं, यह भक्त आपको धारण करने के लिये यत्नवान् होता है। और इसीलिए (जामिषु) = सब बन्धुओं में (विवक्षसे) = विशिष्ट उन्नति के लिये होता है। वस्तुतः प्रभु का धारण व उपासन हमें मार्गभ्रष्ट होने से बचाता है और हमारी उन्नति का कारण बनता है ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - प्रभु का उपासन ही सब उन्नतियों का मूल है। प्रभु का उपासक क्रियाशील व ज्ञानी होता है । सूक्त का प्रारम्भ इन शब्दों से होता है कि मैं को छोड़कर ही हम प्रभु का वरण कर पाते हैं । [१] प्रभु प्राप्ति के लिये 'करुणार्द्रता, सरलता व त्याग' आवश्यक हैं, [२] प्रभु के सच्चे उपासक लोक-धारण में तत्पर होते हैं, [३] प्रभु का उपासक 'अग्नि, सहसवान् व अमर्त्य' बनने का प्रयत्न करता है, [४] स्थिरचित्तता व आत्मनिरीक्षण के द्वारा हम अग्नि बनते हैं, [५] यज्ञों के द्वारा 'प्रभु उपासन' करके हम कमनीय वसुओं को प्राप्त करते हैं, [६] इन वसुओं को प्राप्त करके हम तेजस्वी व ज्ञानी बनते हैं, [७] क्रियाशील ज्ञानी पुरुष ही तो प्रभु का सच्चा उपासक होता है, [८] यह प्रभु ही हमारा उपास्य हो ।