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अग्ने॑ शु॒क्रेण॑ शो॒चिषो॒रु प्र॑थयसे बृ॒हत् । अ॒भि॒क्रन्द॑न्वृषायसे॒ वि वो॒ मदे॒ गर्भं॑ दधासि जा॒मिषु॒ विव॑क्षसे ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

agne śukreṇa śociṣoru prathayase bṛhat | abhikrandan vṛṣāyase vi vo made garbhaṁ dadhāsi jāmiṣu vivakṣase ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अग्ने॑ । शु॒क्रेण॑ । शो॒चिषा॑ । उ॒रु । प्र॒थ॒य॒से॒ । बृ॒हत् । अ॒भि॒ऽक्रन्द॑न् । वृ॒ष॒ऽय॒से॒ । वि । वः॒ । मदे॑ । गर्भ॑म् । द॒धा॒सि॒ । जा॒मिषु॑ । विव॑क्षसे ॥ १०.२१.८

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:21» मन्त्र:8 | अष्टक:7» अध्याय:7» वर्ग:5» मन्त्र:3 | मण्डल:10» अनुवाक:2» मन्त्र:8


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (अग्ने) हे अग्रणायक परमात्मन् ! (शुक्रेण शोचिषा) शुभ्र ज्ञानप्रकाश से (उरु बृहत् प्रथयसे) बहुत प्रकार से महान् प्रसिद्धि को प्राप्त होकर सर्वत्र व्याप्त है (अभिक्रन्दन् वृषायसे) ज्ञानोपदेश करता हुआ-अमृतवृष्टि करता हुआ प्रतिभासित हो रहा है (जामिषु गर्भं दधासि) तुझे प्राप्त करनेवाले उपासकों में वेदोपदेश को धारण कराता है (वः-मदे वि) तुझे हर्ष के निमित्त विशेषरूप से वरण करते हैं (विवक्षसे) तू महान् है ॥८॥
भावार्थभाषाः - अपने शुभ्र तेज से बहुप्रख्यात सर्वत्र व्यापक महान् परमात्मा ज्ञान का उपदेश करता हुआ तथा अमृतवृष्टि बरसाता हुआ उपासकों के अन्दर साक्षात् होता है। उसे आनन्द हर्ष के निमित्त वरना चाहिए ॥८॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

क्रियाशील ज्ञानी भक्त

पदार्थान्वयभाषाः - [१] हे (अग्ने) = प्रगतिशील जीव ! तू (शुक्रेण शोचिषा) = क्रियामय [शुक गतौ] ज्ञानदीप्ति के द्वारा (उरु) = हृदय की विशालता के साथ तथा (बृहत्) = अंग-प्रत्यंग की शक्ति को वृद्धि के साथ (प्रथयसे) = अपना विस्तार करनेवाला होता है। क्रिया व ज्ञान के समन्वय से इसकी भौतिक व अध्यात्मिक दोनों प्रकार की उन्नति होती है । 'उरु' अध्यात्म उन्नति का संकेत करता है तो बृहत् = भौतिक उन्नति का । एवं उन्नति में 'अभ्युदय व निः श्रेयस' दोनों का स्थान है। दोनों का समन्वय ही वास्तविक धर्म है 'यतोऽभ्युदयनिः श्रेयससिद्धिः स धर्मः ' । [२] हे अग्रेणी जीव ! तू (अभिक्रन्दन्) = दिन के प्रारम्भ व अन्त में, अर्थात् दोनों समय उस प्रभु का आह्वान करता हुआ वृषायसे- एक शक्तिशाली पुरुष की तरह आचरण करता है। प्रभु स्मरण से प्रभु की समीपता में यह उसी प्रकार सशक्त बन जाता है जैसे कि माता के अंक में स्थित बालक शक्ति को अनुभव करता है और निर्भीक होता है। [३] हे प्रभो ! (वः) = आपकी प्रति के (विमदे) = विशिष्ट आनन्द के निमित्त यह (गर्भं दधासि) = हिरण्यगर्भ नामक आपका धारण करता है। आप सभी को अपने में धारण करने से 'गर्भ' हैं, यह भक्त आपको धारण करने के लिये यत्नवान् होता है। और इसीलिए (जामिषु) = सब बन्धुओं में (विवक्षसे) = विशिष्ट उन्नति के लिये होता है। वस्तुतः प्रभु का धारण व उपासन हमें मार्गभ्रष्ट होने से बचाता है और हमारी उन्नति का कारण बनता है ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - प्रभु का उपासन ही सब उन्नतियों का मूल है। प्रभु का उपासक क्रियाशील व ज्ञानी होता है । सूक्त का प्रारम्भ इन शब्दों से होता है कि मैं को छोड़कर ही हम प्रभु का वरण कर पाते हैं । [१] प्रभु प्राप्ति के लिये 'करुणार्द्रता, सरलता व त्याग' आवश्यक हैं, [२] प्रभु के सच्चे उपासक लोक-धारण में तत्पर होते हैं, [३] प्रभु का उपासक 'अग्नि, सहसवान् व अमर्त्य' बनने का प्रयत्न करता है, [४] स्थिरचित्तता व आत्मनिरीक्षण के द्वारा हम अग्नि बनते हैं, [५] यज्ञों के द्वारा 'प्रभु उपासन' करके हम कमनीय वसुओं को प्राप्त करते हैं, [६] इन वसुओं को प्राप्त करके हम तेजस्वी व ज्ञानी बनते हैं, [७] क्रियाशील ज्ञानी पुरुष ही तो प्रभु का सच्चा उपासक होता है, [८] यह प्रभु ही हमारा उपास्य हो ।
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (अग्ने) हे अग्रणायक परमात्मन् ! (शुक्रेण शोचिषा) शुभ्रेण ज्ञानप्रकाशेन (उरु बृहत् प्रथयसे) बहुविधम् “उरु बहुविधम्” [यजु० १।७ दयानन्दः] महत् प्रख्यायसे सर्वत्र व्याप्नोषि (अभिक्रन्दन् वृषायसे) ज्ञानोपदेशं कुर्वन्-अमृतवृष्टिकर्त्तेव प्रतिभासि (जामिषु गर्भं दधासि) त्वां प्राप्तुं कर्त्तृषु स्वोपासकेषु “जमति गतिकर्मा” [निघ० २।१४] शब्दं वेदप्रवचनं धारयसि (वः-मदे) त्वां हर्षाय (वि) विशिष्टं वृणुयाम (विवक्षसे) विशिष्टं महत्त्ववान् भवसि ॥८॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Agni, with pure and powerful flames you shine and expand infinitely in many many various ways. Roaring and thundering, you love to shower on earth from heaven and inspire life forms with new energy and vitality for your own joy and for joy of the people. Agni, you are always waxing great and glorious.