पदार्थान्वयभाषाः - (जनिता) = प्रभु ने (त्वा) = तुझे (जजान) = प्रादुर्भूत किया ? किस रूप में ? (विश्वेषाम्) = सब (अध्वराणां) = यज्ञों के (हि) = निश्चय से (अनीकम्) = बल के रूप में । अर्थात् तेरे में सब यज्ञों के करने का सामर्थ्य था । अब संसार के विषयों से आकृष्ट होकर हम उस शक्ति को क्षीण कर लेते हैं और हमारे में यज्ञों के करने का सामर्थ्य नहीं रह जाता । (चित्रम्) = [चिती ज्ञाने] प्रभु ने तुझे संज्ञानवाला किया। परन्तु यहाँ संसार में कामवासना ने तेरे उस ज्ञान पर परदा-सा डाल दिया । (केतुम्) = [कित निवासे रोगापनयने च] प्रभु ने तुझे इस मानव शरीर में उत्तम निवास वाला किया और तुझे रोगशून्य जीवनवाला ही उद्भूत किया। परन्तु जीव ने यहाँ विषयों की ओर झुककर अपनी आर्थिक स्थिति को भी क्षीण कर लिया और अपने शरीर को रोगों का घर बना लिया। एवं प्रभु ने तो यज्ञों की शक्ति दी थी, ज्ञान तथा उत्तम निवास तथा रोगशून्य शरीर दिया था । मनुष्य ने अपनी गलतियों से अपने जीवन से यज्ञों को विलुप्त कर दिया, अपने ज्ञान पर कामरूप परदे को पड़ने दिया, भोगों में धन का दुरुपयोग करके क्षीण धन हो गया तथा विविध रोगों का शिकार बन गया। प्रभु जीव से कहते हैं कि (स) = वह तू अपने जीवन में कमी न आने देने के लिये (इषः) = उन अन्नों को (आ यजस्व) = सब प्रकार से अपने साथ संगत कर । जो अन्न कि (नृवती:) = उत्तम नरों वाले हैं अर्थात् मनुष्यों को बड़ा उन्नत करनेवाले हैं [नृ नये], जिन अन्नों के सेवन से मनुष्य नर बनता है, अपने को उन्नतिपथ पर आगे ले चलनेवाला । (अनु क्षा:) = [क्षि निवासगत्योः ] जो अन्न उत्तम निवास वाले गतिशील व्यक्तियों के अनुकूल हैं अर्थात् जिन अन्नों के सेवन से मनुष्य उत्तम निवास वाला तथा क्रियाशील जीवनवाला बनता है। (स्पार्हा:) = जो अन्न मनुष्य को उन्नति शिखर पर आरूढ़ होने की स्पृहा देनेवाले हैं। (क्षुमती:) = [क्षु शके] जो अन्न मनुष्य को प्रभु के नामोच्चारण व स्तवन की ओर प्रेरित करते हैं। तथा जो अन्न (विश्वजन्याः) = सब उन्नतियों के लिये हितकर हैं, हमारी सब शक्तियों के विकास के लिये उत्तम हैं। मनुष्य की सब उन्नति व अवनति इस अन्न पर ही निर्भर करती है। तामस अन्न हमें अधोगति की ओर ले जाता है तो सात्त्विक अन्न ही हमारी सब उन्नतियों का कारण बनता है। ' आहार शुद्धौ सत्त्वशुद्धिः ' आहार की शुद्धि पर ही अन्तःकरण की शुद्धि आश्रय करती है। अन्तःकरण की शुद्धि ही हमें अन्ततः प्रभु दर्शन के भी योग्य बनाती है । एवं प्रस्तुत मन्त्र में उस सात्त्विक अन्न का चित्रण करते हुए कहा गया है कि तुम्हारा अन्न तुम्हें नर बनानेवाला उत्तम निवास व गतिशीलता के अनुकूल स्पृहणीय प्रभुस्तवन की ओर प्रवण करनेवाला तथा सब शक्तियों के विकास के लिये हितकर हो। इस प्रकार के अन्न के सेवन से हमारा वह मूल का शुद्ध रूप बना रहेगा। अर्थात् हम यज्ञशील ज्ञानी उत्तम निवास वाले व नीरोग बने रहेंगे ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- प्रभु ने जीव को यज्ञों के बल वाला ज्ञानी व उत्तम निवास वाला तथा नीरोग बनाया है। यदि हम उत्तम ही अन्नों का सेवन करेंगे तो हमारा यह स्वरूप मलिन न होगा।