पदार्थान्वयभाषाः - [१] हे (सिनीवालि) = प्रशस्त अन्नवाली [सिनम् अन्नं] तू (गर्भं धेहि) = गर्भ को धारण कर । माता के भोजन का सन्तान के शरीर पर जबर्दस्त प्रभाव पड़ता है, गर्भस्थ बालक माता के द्वारा ही रस- रुधिरादि को प्राप्त करता है। माता का भोजन न केवल उस गर्भस्थ बालक के शरीर पर, अपितु उसकी मन व बुद्धि पर भी प्रभाव डालता है। [२] हे (सरस्वति) = सरस्वती की आराधना करनेवाली, ज्ञान की अधिष्ठात्री देवता को उपासित करनेवाली, ज्ञान की रुचिवाली तू (गर्भं धेहि) = गर्भ को धारण कर । ज्ञान की रुचि विषय-वासनाओं से बचाती है और इस प्रकार गर्भस्थ बालक में भी उत्तम प्रवृत्तियाँ ही उत्पन्न होती हैं, वह भी ज्ञान की रुचिवाला बनता है । [३] हे पत्नि ! (अश्विनौ देवौ) = शरीरस्थ प्राण और अपान (ते गर्भं आधत्ताम्) = तेरे गर्भ का धारण करें। पत्नी की प्राणापान शक्ति ठीक होगी तो गर्भस्थ सन्तान सब प्रकार से नीरोग होगा। ये अश्विनी देव (पुष्करस्रजौ) = पुष्टिकारक रज व वीर्य को उत्पन्न करनेवाले हैं [पुष् +कर + सृज् ] इस प्रकार ये सब रोगों के चिकित्सक हो जाते हैं ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- पत्नी प्रशस्त अन्नों का सेवन करे, ज्ञान की रुचिवाली हो, प्राणापान की शक्ति के वर्धन के लिये प्राणायाम को अपनाये ।