पदार्थान्वयभाषाः - [१] (अहम्) = मैं (ओषधीषु) = ओषधियों में (गर्भं अदधाम्) = गर्भ को स्थापित करता हूँ । अर्थात् ओषधियाँ का सेवन करता हुआ, उनसे उत्पन्न शक्ति के द्वारा सन्तान को जन्म देता हूँ। इस प्रकार ये सन्तानें सात्त्विकि वृत्तिवाली होती हुई परस्पर प्रेम से चलनेवाली होती हैं । [२] (अहम्) = मैं (विश्वेषु भुवनेषु अन्त:) = मैं सब भुवनों में इन सन्तानों को जन्म देता हूँ । अर्थात् सब लोकों का हित करनेवाली सन्तानों को जन्म देता हूँ । उन सन्तानों को, जो कि अपने को विश्व का नागरिक अनुभव करती हैं। देशभक्ति उन्हें अन्य देशों से घृणा करनेवाला नहीं बनाती। [३] (अहम्)= मैं (पृथिव्याम्) = पृथिवी में (प्रजाः) = प्रजाओं को (अजनयम्) = उत्पन्न करता हूँ। ऐसी सन्तानों को जन्म देता हूँ जो कि पृथिवी पर चलती हैं। आकाश में नहीं उड़ती-फिरती, हवाई किले नहीं बनाती रहतीं। [४] (अहम्) = मैं (अपरीषु) = न परायी स्त्रियों में (जनिभ्यः) = माताओं के लिये पुत्रान् पुत्रों को जन्म देता हूँ। अपनी पत्नी में ही सन्तान को जन्म देना है और उस सन्तान को माता के लिये ही सौंपना है । वस्तुतः माता ने ही तो सन्तान के चरित्र का निर्माण करना होता है। 'बच्चा कुछ भी माँगे', उसे यही कहना कि 'माता जी से कहो'। बस ऐसा होने पर बच्चा माता के पूरे शासन में होगा और सुन्दर जीवनवाला बनेगा ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - उत्तम सन्तान के लिये वानस्पतिक भोजन आवश्यक है सन्तान ऐसे हों जो कि [क] अपने को विश्व का नागरिक समझें, [ख] हवाई किले न बनायें, [ग] माता के शासन में चलें यह उत्तम सन्तान का निर्माण करनेवाला 'त्वष्टा' है, यही 'गर्भकर्ता' है। इस के लिये कहते हैं कि-