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अप॑श्यं त्वा॒ मन॑सा॒ चेकि॑तानं॒ तप॑सो जा॒तं तप॑सो॒ विभू॑तम् । इ॒ह प्र॒जामि॒ह र॒यिं ररा॑ण॒: प्र जा॑यस्व प्र॒जया॑ पुत्रकाम ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

apaśyaṁ tvā manasā cekitānaṁ tapaso jātaṁ tapaso vibhūtam | iha prajām iha rayiṁ rarāṇaḥ pra jāyasva prajayā putrakāma ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अप॑श्यम् । त्वा॒ । मन॑सा । चेकि॑तानम् । तप॑सः । जा॒तम् । तप॑सः । विऽभू॑तम् । इ॒ह । प्र॒ऽजाम् । इ॒ह । र॒यिम् । ररा॑णः । प्र । जा॒य॒स्व॒ । प्र॒ऽजया॑ । पु॒त्र॒ऽका॒म॒ ॥ १०.१८३.१

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:183» मन्त्र:1 | अष्टक:8» अध्याय:8» वर्ग:41» मन्त्र:1 | मण्डल:10» अनुवाक:12» मन्त्र:1


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ब्रह्ममुनि

इस सूक्त में स्वयंवरविवाह का वर्णन है, विवाह का प्रस्ताव वधू की ओर से होना चाहिए, उसका व्ययभार पति को अपने ऊपर लेना होगा, गृहस्थधर्म ऋतु पर करना इत्यादि विषय हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (त्वा) हे ब्रह्मचारी ! तुझ (तपसः जातम्) ब्रह्मचर्यरूप तप से संपन्न (तपसः-विभूतम्) ब्रह्मचर्यरूप तप से पुष्टि वैभव प्राप्त (मनसा चेकितानम्) मन से अपना अभिप्राय जनाते हुए को (अपश्यम्) मैं देखती हूँ (पुत्रकाम) हे पुत्र की कामना करनेवाले ! (इह प्रजाम्) इस गृहस्थ आश्रम में सन्तान को (इह रयिम्) इस गृहस्थ आश्रम में धन को (रराणः) मुझे देने के हेतु (प्रजया प्रजायस्व) प्रजारूप से मेरे अन्दर उत्पन्न हो ॥१॥
भावार्थभाषाः - विवाह के लिए प्रथम प्रस्ताव वधू की ओर से होना चाहिए, वर ब्रह्मचर्य से सम्पन्न पुष्ट हुआ सन्तान की कामना करनेवाला हो और पत्नी के समस्त व्यय का भार अपने ऊपर रखने में समर्थ हो ॥१॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

यजमान पत्नी का कथन

पदार्थान्वयभाषाः - [१] (त्वा) = तुझे (मनसा) = मनन शक्ति के द्वारा (चेकितानम्) = सब कर्त्तव्यों के ज्ञानवाले को (अपश्यम्) = देखती हूँ। मैं देखती हूँ कि आप मनन के द्वारा अपने कर्त्तव्यों को खूब समझते हैं। (तपसः जातम्) = तप के द्वारा आपकी शक्तियों का विकास हुआ है। (तपसः) = तप से आप (विभूतम्) = विशिष्ट ऐश्वर्यवाले हैं अथवा तप से आप व्याप्त हुए हैं । [२] (इह) = इस गृहस्थाश्रम में (प्रजाम्) = प्रजा को, (इह) = यहाँ (रयिम्) = धन को (रराण:) = देते हुए आप, हे (पुत्रकाम) = पुत्र की कामनावाले! (प्रजया प्रजायस्व) = प्रजा से प्रकृष्ट प्रादुर्भाववाले हों । उत्तम प्रजा को प्राप्त करके आप उस प्रजा के द्वारा यशस्वी बनें। प्रजा के उत्तम निर्माण के लिये आवश्यक है कि आप गृहस्थ में जहाँ उत्तम प्रजा की इच्छावाले हों, वहाँ पालन-पोषण के लिये आवश्यक धन का अर्जन करनेवाले हों ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - पति [क] मनन के द्वारा कर्त्तव्यों को समझनेवाले हों, [ख] तप से उनकी शक्तियों का ठीक विकास हुआ हो, [ग] तप से उनका जीवन व्याप्त हो, [घ] सन्तान की कामनावाले होते हुए वे धनार्जनशील हों ।
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ब्रह्ममुनि

अत्र सूक्ते स्वयंवरविवाहस्य वर्णनमस्ति तत्र प्रथमप्रस्तावो विवाहस्य वध्वा कर्तव्यः, पत्न्याः सर्वव्ययभारः पत्या वोढव्यः, ऋतुकाले गृहस्थधर्मः सेवनीय इत्यादयो विषयाः सन्ति।

पदार्थान्वयभाषाः - (त्व) हे ब्रह्मचारिन् ! त्वाम् (तपसः-जातं तपसः-विभूतम्) ब्रह्मचर्यरूपात् तपसः सम्पन्नं तथा ब्रह्मचर्यरूपात् तपसः पुष्टिवैभवप्राप्तम् (मनसा चेकितानम्-अपश्यम्) स्वमनसा स्वाभिप्रायं प्रज्ञापयन्तम् “चेकितानः प्रज्ञापयन्” [ऋ० ४।१४।२ दयानन्दः] पश्यामि (पुत्रकाम) हे पुत्रान् कामयमान ! (इह प्रजाम्-इह रयिं रराणः) अत्र गृहाश्रमे सन्ततिमस्मिन् गृहाश्रमे धनं मह्यं प्रयच्छन् (प्रजया प्रजायस्व) प्रजारूपेणोत्पन्नो भव ॥१॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - I see you born of austere discipline and education with the lustre of discipline shining on your face and expressing your heart’s desire. Desirous of progeny and prosperity here in the household, pray be reborn through your own child and fulfil your desire for progeny and continuity in life.$(This verse may be taken as spoken by the wife to husband.)