ज्ञानाविरोधी राक्षसीभावों का विनाश
पदार्थान्वयभाषाः - [१] (तपुर्मूर्धा) = तपस्वियों का शिरोमणि वह प्रभु (रक्षसः) = राक्षसी भावों को (तपतु) = संतप्त करे, (ये) = जो राक्षसीभाव (ब्रह्मद्विषः) = ज्ञान के विरोधी हैं। जिन राक्षसी भावों को ज्ञान से किसी प्रकार की प्रीति नहीं, उन्हें प्रभु दूर करें। उऔर इस प्रकार वे प्रभु (शरवे) = [शरुं सा० ] इस हिंसक काम [= वृत्र] के (हन्तवा) = हनन के लिये हों। राक्षसी भावों को दूर करते हुए अन्ततः हम इनके मुखिया (वृत्र) = काम को भी विनष्ट कर सकें। यह प्रार्थना 'तपुर्मूर्धा' से की गई है। स्पष्ट है कि तपस्वी बनकर ही हम इन अशुभ भावों को दूर कर सकते हैं । [२] काम को विनष्ट करके वे प्रभु (अशस्तिं क्षिपत्) = अप्रशस्त कार्यों को हमारे से दूर करें। (दुर्मतिं अप अहन्) = दुर्बुद्धि को सुदूर विनष्ट करें (अथा) = और अब (यजमानाय) = यज्ञशील पुरुष के लिये (शं योः करत्) = शान्ति को करें तथा भयों को पृथक् करें।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - तपस्या के द्वारा हमारे राक्षसी भाव दूर हों तथा काम [वृत्र] का विनाश हो । सूक्त का भाव यह है कि 'बृहस्पति' का आराधन हमारी बुराइयों को दूर करे। 'नराशंस' का शंसन हमें शक्ति दे व निरभिमान करे तथा 'तपुर्मूर्धा' का आराधन हमें तपस्वी बनाये और राक्षसी भावों से दूर करे। ऐसा होने पर हम प्रशस्त प्रजाओंवाले 'प्रजावान्' होंगे तथा प्रजाओं का रक्षण करते हुए 'प्राजापत्य' कहलायेंगे। 'प्रजावान् प्राजापत्य' ही अगले सूक्त का ऋषि है-