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ते॑ऽविन्द॒न्मन॑सा॒ दीध्या॑ना॒ यजु॑: ष्क॒न्नं प्र॑थ॒मं दे॑व॒यान॑म् । धा॒तुर्द्युता॑नात्सवि॒तुश्च॒ विष्णो॒रा सूर्या॑दभरन्घ॒र्ममे॒ते ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

te vindan manasā dīdhyānā yajuḥ ṣkannam prathamaṁ devayānam | dhātur dyutānāt savituś ca viṣṇor ā sūryād abharan gharmam ete ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ते । अ॒वि॒न्द॒न् । मन॑सा । दीध्या॑नाः । यजुः॑ । स्क॒न्नम् । प्र॒थ॒मम् । दे॒व॒ऽयान॑म् । धा॒तुः । द्युता॑नात् । स॒वि॒तुः । च॒ । विष्णोः॑ । आ । सूर्या॑त् । अ॒भ॒र॒न् । घ॒र्मम् । ए॒ते ॥ १०.१८१.३

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:181» मन्त्र:3 | अष्टक:8» अध्याय:8» वर्ग:39» मन्त्र:3 | मण्डल:10» अनुवाक:12» मन्त्र:3


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (ते) वे पूर्वोक्त अग्नि आदि ऋषि (मनसा) बुद्धि से (दीध्यानाः) प्रकाशमान (अविन्दन्) प्राप्त करते हैं (यजुः स्कन्नम्) यजुर्वेद से साधित (प्रथमं देवयानम्) जीवन्मुक्तों के गमनयोग्य अध्यात्मयज्ञ को प्राप्त करते हैं (धातुः-द्युतानात् सवितुः-विष्णोः) इन अग्नि, वायु, सूर्य, अङ्गिरा से ब्रह्मा ने अध्ययन किया, (एते सूर्यात्) ये सूर्योदय से (घर्मम्-आभरन्) अध्यात्मयज्ञ को अपने अन्दर आभरित करते हैं ॥३॥
भावार्थभाषाः - अग्नि आदि ऋषि बुद्धि से प्रकाशमान थे, यजुर्वेद-परमात्मा से संगतिकरणपद्धति से अध्यात्मयज्ञ किया, सूर्योदय के समय वेदज्ञान को प्राप्त किया ॥३॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

घर्म सौर्य

पदार्थान्वयभाषाः - [१] गत मन्त्र के अनुसार अपने में शक्ति को भरनेवाले (एते) = ये पुरुष (धातुः) = उस धारण करनेवाले, (द्युतानात्) = ज्योति का विस्तार करनेवाले, (सवितुः) = प्रेरक, (विष्णोः) = व्यापक प्रभु से (च) = और (सूर्यात्) = प्रभु की सर्वमहान् विभूति इस सूर्य से (घर्मम्) = शक्ति की उष्णता व दीप्ति को [घृ=to shine] (आभरन्) = अपने में भरते हैं। प्रभु का स्मरण तो वासनाओं से बचाकर हमें शक्ति- सम्पन्न बनाता है और सूर्य हमारे में प्राणशक्ति का सञ्चार करता ही है 'प्राणः प्रजानामुदयत्येष सूर्यः '। [२] (ते) = वे शक्ति से चमकनेवाले 'घर्म' और सूर्य से प्राणशक्ति को प्राप्त करनेवाले 'सौर्य' (मनसा) = मन से (दीध्यानाः) = दीप्त होते हुए (यजुः) = यजु को अविन्दन् प्राप्त करते हैं । 'यज देव- पूजासंगतिकरणदानेषु' से बना हुआ यजु शब्द 'बड़ों के आदर, परस्पर मेल तथा दान' के भाव का प्रतिपादन कर रहा है। यह सब यजु (स्कन्नम्) = गति है [स्कन्द् गतौ, भावे क्तः ] सब यज्ञ कर्म से ही साध्य होते हैं। यह यज्ञ ही (प्रथमं देवयानम्) = सर्वमुख्य देवयान मार्ग है। देवता यज्ञों को अपनाते हैं, असुर उनमें विघ्न करते हैं। इन यज्ञों से ही तो देव उस यज्ञ [रूप] परमात्मा की उपासना करते हैं।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- सूर्य के सम्पर्क में रहते हुए हम अपने को सशक्त बनाकर यज्ञात्मक कर्मों में प्रवृत्त हों । यही देवों का मार्ग है। इस प्रकार वसिष्ठ, भरद्वाज व सौर्य बनकर हम जीवन में उन्नत होते हैं । तपस्वियों के मूर्धन्य 'तपुर्मूर्धा' बनते हैं और खूब ज्ञानी होकर 'बार्हस्पत्य' कहलाने लगते हैं। इस 'तपूर्मूर्धा बार्हस्पत्य' का ही अगला सूक्त है-
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (ते मनसा दीध्यानाः-अविन्दन्) ते पूर्वोक्ता ऋषयो मनसा बुद्ध्या प्रकाशमानः लभन्ते (यजुः-स्कन्नं प्रथमं देवयानम्) यजुर्भिः साधितं प्रथमं देवा यस्मिन् यान्ति तमध्यात्मं यज्ञं लभन्ते-इत्यर्थः (धातुः द्युतानात्-सवितुः-विष्णोः) इत्येषां सकाशात् (एते सूर्यात्- घर्मम्-आभरन्) एते पूर्वोक्ता-ऋषयः सूर्योदयात् सूर्योदये सति यज्ञम् “घर्मः-यज्ञनाम” [निघ० ३।१७] समन्तात्-कुर्वन्ति ॥३॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - They, brilliant in mind and vision, vibrant at heart and burning with passion, received the knowledge for life and living, revealed and released in incessant flow, first and final for men on the path to divinity. And all these, Agni, Vayu, Aditya and Angira, Brahma, Bharadvaja and others that follow ultimately receive the knowledge, light and warmth of life, from the Supreme Sun, self-refulgent sustainer, giver of light, giver of life, omniscient, omnipresent Divinity.