पदार्थान्वयभाषाः - [१] हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष ! (क्षत्रम्) = क्षतों से, घावों से त्राण करनेवाले (वामम्) = सुन्दर (ओजः) = ओज को [बल को] (अभि) = लक्ष्य बनाकर (अजायथाः) = तू विकसित शक्तियोंवाला होता है । जितेन्द्रियता हमारे अन्दर क्षत्र व ओज का विकास करती है । [२] हे (वृषभ) = शक्तिशालिन् व सब पर सुखों का वर्षण करनेवाले ! तू (चर्षणीनाम्) = मनुष्यों में (अमित्रयन्तं जनम्) = अमित्र की तरह आचरण करनेवाले मनुष्य को (अपानुदः) = दूर कर । अहितकारी लोगों से भी घृणा न करते हुए उनकी उपेक्षा करनेवाला हो, उन्हें अपने से दूर ही रख । (उ) = और (देवेभ्यः) = दिव्य वृत्तियों के लिये, उत्तम वृत्तियों के विकास के लिये (उरुं लोकम्) = विशाल प्रकाश को (अकृणोः) = सम्पादित कर। जितना-जितना ज्ञान का प्रकाश बढ़ेगा, उतना ही दिव्यगुणों का विकास होगा। देवों के विकास का क्षेत्र 'प्रकाश' है, असुरों के विकास का 'अन्धकार' ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- हम बल को बढ़ायें । प्रकाश वृद्धि के द्वारा सद्गुणों का वर्धन करें । इस प्रकार शक्ति व प्रकाश के वर्धन से हम 'प्रथ वासिष्ठ' बनेंगे, अपना विस्तार करनेवाले, उत्तम निवासवाले । विस्तार के सहित 'सप्रथ' होंगे और अपने में शक्तियों का भरण करनेवाले ' भारद्वाज' होंगे। शक्ति के पुञ्ज 'घर्म:' बनेंगे और सूर्य के समान तेजस्वी 'सौर्य' होंगे। इन्हीं का अगला सूक्त है-