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इ॒मं जी॒वेभ्य॑: परि॒धिं द॑धामि॒ मैषां॒ नु गा॒दप॑रो॒ अर्थ॑मे॒तम् । श॒तं जी॑वन्तु श॒रद॑: पुरू॒चीर॒न्तर्मृ॒त्युं द॑धतां॒ पर्व॑तेन ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

imaṁ jīvebhyaḥ paridhiṁ dadhāmi maiṣāṁ nu gād aparo artham etam | śataṁ jīvantu śaradaḥ purūcīr antar mṛtyuṁ dadhatām parvatena ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

इ॒मम् । जी॒वेभ्यः॑ । प॒रि॒ऽधिम् । दा॒धा॒मि॒ । मा । ए॒षा॒म् । नु । गा॒त् । अप॑रः । अर्थ॑म् । ए॒तम् । श॒तम् । जी॒व॒न्तु॒ । श॒रदः॑ । पु॒रू॒चीः । अ॒न्तः । मृ॒त्युम् । द॒ध॒ता॒म् । पर्व॑तेन ॥ १०.१८.४

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:18» मन्त्र:4 | अष्टक:7» अध्याय:6» वर्ग:26» मन्त्र:4 | मण्डल:10» अनुवाक:2» मन्त्र:4


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (जीवेभ्यः) जीनेवालों के लिए (इमं परिधिं दधामि) इस घेरे रूप प्रबन्ध को नियत करता हूँ, जो (एषाम्-अपरः एतम्-अर्थं मा नु गात्) इन अध्यात्ममार्गी मुमुक्षुओं का कोई अन्य इस अरमणीय, अनिष्ट मृत्युपथ को नहीं प्राप्त हो (पुरुचीः शतं शरदः-जीवन्तु) बहुत सुख प्राप्त करानेवाली सौ शरदियों तक वे जीवित रहें (पर्वतेन-अन्तर्मृत्युं दधताम्) पूर्ण करने के साधनवाले ब्रह्मचर्यरूप पर्वत के द्वारा मृत्यु को अन्तर्हित लुप्त करें-नष्ट करें-तिरस्कृत करें ॥३॥
भावार्थभाषाः - परमात्मा दीर्घ जीवन चाहनेवाले मुमुक्षु जनों के लिए नियत परिधि बनाता है। कोई भी मुमुक्षु उसमें रहकर शीघ्र मृत्यु का ग्रास नहीं बनता है, किन्तु सौ या बहुत वर्षों तक वे जीते हैं, ब्रह्मचर्यरूप पर्वत को मृत्यु लाँघ नहीं सकती है ॥४॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

शतायु जीवन

पदार्थान्वयभाषाः - [१] मैं परमेश्वर (जीवेभ्यः) = जीवित मनुष्यों के लिये (इमम्) = इस (परिधिम्) = सीमा को (दधामि) = धारण करता हूँ [व्यवस्थित करता हूँ] [२] (एषाम्) = इनमें से अपर कोई भी (एतम्- अर्थम्) = इस मृत्यु मार्ग से (नु) = निश्चय से (मा गात्) = मत जावे | सभी जीवित मनुष्य (शतम्) = सौ (शरदः) = वर्षों तक (पुरूची:) = सौ से भी अधिक वर्षों तक (जीवन्तु) = जीवें । बीच में उनकी उम्र ही खण्डित न हो जाए। [३] ये जीव (मृत्युम्) = मृत्यु को (पर्वतेन) = पर्वत से (अन्तर्दधताम्) = अन्तर्हित करनेवाले हों। यह पर्वत क्या है ? [क] कोश में पर्वत का अर्थ [A kind of vegetable] 'एक प्रकार की वनस्पति' दिया है। वनस्पति विशेष के प्रयोग से दीर्घजीवन सम्भव है ही । आचार्य दयानन्द ने यजु० ३३ । ५० में पर्वत का अर्थ [ख] [पर्वाणि उत्सवा विद्यन्ते येषां ते] 'उत्साहमय जीवन' किया है। दीर्घजीवन के लिये सदा प्रसन्न रहने का महत्त्व सुव्यक्त है । [ग] ३५ । १५ में 'ज्ञानेन ब्रह्मचार्यादिना' इन शब्दों में आचार्य पर्वत का अर्थ 'ज्ञान और ब्रह्मचर्य' करते हैं । दीर्घायुष्य के ये मुख्यतम साधन हैं। ब्रह्मचर्य का दीर्घजीवन से अत्यधिक सम्बन्ध है। 'मरणं बिन्दुपातेन जीवनं बिन्दु धारणात्' इन शब्दों में 'ब्रह्मचर्य ही जीवन है और उसका अभाव मृत्यु' । एवं ब्रह्मचर्य रूप पर्वत से मृत्यु को हमें अन्तर्हित करना है । [घ] यहाँ मेरुदण्ड [रीढ़ की हड्डी] भी शरीरस्थ मेरुपर्वत ही है। इसके सीधे रखने से भी दीर्घजीवन की प्राप्ति होती है। झुककर न बैठना, सीधे बैठने का अभ्यास आवश्यक है ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- हम सौ वर्ष तक बड़ा क्रियाशील जीवन बितायें। ब्रह्मचर्य रूप पर्वत से मृत्यु को अपने से दूर रखें।
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (जीवेभ्यः) जीवनवद्भ्यः (इमं परिधिं दधामि) एतं पर्यावारकं प्रबन्धं नियतं करोमि, यत् (एषाम्-अपरः-एतम्-अर्थं नु मा-गात्) अध्यात्ममार्गिणां मुमुक्षूणां कश्चनान्य एतमरमणीयमनिष्टं मृत्युपथं नैव शीघ्रं गच्छेत् (पुरुचीः शतं शरदः-जीवन्तु) बहुसुखं प्राययन्तीः “बहूनि सुखान्यञ्चतीः” [ऋ०३।५८।८ दयानन्दः] शतसंख्याकाः शरदो जीवन्तु ते (पर्वतेन-अन्तर्मृत्युं दधताम्) पर्ववता पूर्णकरणसाधनवता ब्रह्मचर्येण “पर्वतेन ज्ञानेन ब्रह्मचर्येण वा” [यजु०३५।१५ दयानन्दः] मृत्युमन्तर्हितं कुर्वन्तु-क्षयं नाशं कुर्वन्तु “अन्तो वै क्षयः” [कौ०८।१] “अन्तः-नाशः” [ऋ०७।२१।६ दयानन्दः] तिरस्कुर्वन्तु वा “तिरो मृत्युं दधताम्” [अथर्व०१२।२।२३] ॥४॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - I set this border line of order for these people. May none of these trespass this into the other territory of death. May they live a long age of full hundred years, bearing though the fact of death within with adamantine walls of resistance by the discipline of health.