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परं॑ मृत्यो॒ अनु॒ परे॑हि॒ पन्थां॒ यस्ते॒ स्व इत॑रो देव॒याना॑त् । चक्षु॑ष्मते शृण्व॒ते ते॑ ब्रवीमि॒ मा न॑: प्र॒जां री॑रिषो॒ मोत वी॒रान् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

param mṛtyo anu parehi panthāṁ yas te sva itaro devayānāt | cakṣuṣmate śṛṇvate te bravīmi mā naḥ prajāṁ rīriṣo mota vīrān ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

पर॑म् । मृ॒त्यो॒ इति॑ । अनु॑ । परा॑ । इ॒हि॒ । पन्था॑म् । यः । ते॒ । स्वः । इत॑रः । दे॒व॒ऽयाना॑त् । चक्षु॑ष्मते । शृ॒ण्व॒ते । ते॒ । ब्र॒वी॒मि॒ । मा । नः॒ । प्र॒ऽजाम् । रि॒रि॒षः॒ । मा । उ॒त । वी॒रान् ॥ १०.१८.१

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:18» मन्त्र:1 | अष्टक:7» अध्याय:6» वर्ग:26» मन्त्र:1 | मण्डल:10» अनुवाक:2» मन्त्र:1


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ब्रह्ममुनि

इस सूक्त में मुमुक्षुओं की मोक्षप्राप्ति, और संसारी जनों की संसारप्रवृत्ति वर्णित है।

पदार्थान्वयभाषाः - (मृत्यो) हे मारनेवाले काल ! (परं पन्थाम् अनुपरेहि) अन्य मार्ग की ओर जा (यः-ते) जो तेरा मार्ग है (देवयानात्) मुमुक्षुयान से भिन्न पितृयाण, जहाँ साधारणजन पुनर्जन्मार्थ माता पिताओं को प्राप्त होते हैं (चक्षुष्मते शृण्वते ते ब्रवीमि) आँखवाले सुनते हुए तेरे लिए कहता हूँ “यह कथन आलङ्कारिक ढंग से है।” (नः-प्रजां मा रीरिषः मा-उत वीरान्) देवयान की ओर जानेवालों की इन्द्रियों को मत नष्ट कर और न हमारे प्राणों को नष्ट कर ॥१॥
भावार्थभाषाः - मारनेवाला काल पुनः-पुनः जन्मधारण करनेवाले साधारण जनों को पुनः-पुनः मारता रहता है, परन्तु देवयान-मोक्षमार्ग की ओर जानेवाले मुमुक्षुओं को पुनः-पुनः या मध्य में नहीं मारता, उन्हें पूर्ण अवस्था प्रदान करता है ॥१॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

मृत्यु का मार्ग

पदार्थान्वयभाषाः - [१] हे मृत्यो = मृत्यु - देवते ! तू परं पन्थाम् - सुदूर मार्ग को अनु-लक्ष्य करके परेहि- हमारे से दूर चलीजा । उस मार्ग पर जा यः -जो कि ते-तेरा स्वः - अपना है। देवयानात् इतर:-जो देवयान से भिन्न मार्ग है। देवताओं का मार्ग 'देवो दानात्' देने का है, देव देकर खाते हैं। इनसे विपरीत असुर हैं, जो कि सारे का सारा अपने मुख में डाल लेते हैं [ स्वेषु आस्येषु जुह्वतश्चेति सः ] देवताओं का मार्ग 'देवो दीपनाद्वाद्योतनाद्वा' ज्ञान का मार्ग है, इस मार्ग में स्वाध्याय व प्रवचन को प्रमुखता प्राप्त है, असुरों के मार्ग में 'खाने-पीने व भोग' की प्रमुखता है । सो मृत्यु ने वहीं आना है जहाँ स्वार्थ है, जहाँ भोग का प्राधान्य है । [२] मृत्यु को सम्बोधन करते हुए कहते हैं कि चक्षुष्मते शृण्वते-देखती व सुनती ते-तेरे लिये ब्रवीमि मैं यह कहता हूँ कि तू नः प्रजाम् - हमारी प्रजा को मा रीरिषः = मत हिंसित कर, उत=और वीरान् मा- हमारी वीर सन्तानों का तू अन्त करनेवाली न हो। हमारी सन्तानें हमारे सामने जीवन को समाप्त कर न चली जायें। पीछे आने से उन्हें पहले जाने का अधिकार ही नहीं है। उनका पहले जाना तो अँधेर ही है। भावार्थ- हम देवयान मार्ग से चलें। स्वार्थ व भोग से ऊपर उठें। स्वार्थ व भोग का मार्ग ही मृत्यु का मार्ग है।
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ब्रह्ममुनि

अत्र सूक्ते मुमुक्षूणां मोक्षप्रापणं तद्भिन्नानां संसारप्रवृत्तिश्च वर्ण्येते ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (मृत्यो) हे मारयितः काल ! ‘मृत्युः मारयतीति सतः” [निरु०११।७] (परं पन्थाम्-अनुपरेहि) अन्यं पन्थानं प्रति प्राप्नुहि (यः ते) यः पन्थास्ते तवास्ति (देवयानात्) मुमुक्षुयानाद्भिन्नः पितृयाणः यत्र पुनर्जन्मार्थं मातापितरौ प्राप्नुवन्ति साधारणा जनाः (चक्षुष्मते शृण्वते ते ब्रवीमि) चक्षुष्मते शृण्वते तुभ्यं ब्रवीमि-इति त्वालङ्कारिकं कथनम् (नः प्रजां मा रीरिषः-मा-उत वीरान्) अस्माकं देवयानमार्गिणामिन्द्रियाणि मा हिंसीः “इन्द्रियं प्रजाः” [का०२७।२] नापि प्राणान् नाशय “प्राणा वै वीराः” [श०९।४।३।१०] ॥१॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - O Death, go off to that other path that’s yours, of mutability other than the path of divinity. You have eyes to see and ears to hear, and to you I say: Do not hurt our people, do not destroy our brave.