पदार्थान्वयभाषाः - [१] राजा कहता है कि प्रजा इस प्रकार कर आदि के देने में अनुकूलता रखे कि (अहम्) = मैं (असपत्नः) = सपत्नों से रहित, सपत्नहाराष्ट्र के अन्य पति बनने के दावेदारों को नष्ट करनेवाला, (अभिराष्ट्रः) = प्राप्त राज्यवाला तथा (विषासहिः) = शत्रुओं को कुचलनेवाला होऊँ । [२] (यथा) = जिससे (अहम्) = मैं (एषां भूतानाम्) = इन सब प्राणियों के (विराजानि) = विशिष्टरूप से जीवन को व्यवस्थित करनेवाला बनूँ। (जनस्य च) = और राष्ट्र व्यवस्था के अंगभूत इन अपने लोगों के जीवन को भी नियमित व दीप्त करनेवाला बनूँ ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - राजा असपत्न हो, विषासहि हो । सब राष्ट्रवासियों व प्रबन्धकों के जीवनों को व्यवस्थित करनेवाला हो । सम्पूर्ण सूक्त का भाव यह है कि राजा राष्ट्र को अन्तः व बाह्य शत्रुओं से सुरक्षित करके सुव्यवस्थित करे। ऐसे ही राष्ट्र में सब प्रकार की उन्नतियों का सम्भव हो सकता है। ऐसे ही राष्ट्र में 'ऊर्ध्वग्रावा सर्व आर्बुदि' पुरुष बना करते हैं । 'ऊध्वश्चासौ ग्रावा च' गुणों की दृष्टि से उन्नत, शरीर की दृष्टि से वज्रतुल्य । 'सर्पः ' सदा क्रियाशील और इस क्रियाशीलता से उन्नति के शिखर पर पहुँचनेवाला 'आर्बुदि'। इनके लिये कहते हैं-