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अ॒स॒प॒त्नः स॑पत्न॒हाभिरा॑ष्ट्रो विषास॒हिः । यथा॒हमे॑षां भू॒तानां॑ वि॒राजा॑नि॒ जन॑स्य च ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

asapatnaḥ sapatnahābhirāṣṭro viṣāsahiḥ | yathāham eṣām bhūtānāṁ virājāni janasya ca ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒स॒प॒त्नः । स॒प॒त्न॒ऽहा । अ॒भिऽरा॑ष्ट्रः । वि॒ऽस॒स॒हिः । यथा॑ । अ॒हम् । ए॒षाम् । भू॒ताना॑म् । वि॒ऽराजा॑नि । जन॑स्य । च॒ ॥ १०.१७४.५

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:174» मन्त्र:5 | अष्टक:8» अध्याय:8» वर्ग:32» मन्त्र:5 | मण्डल:10» अनुवाक:12» मन्त्र:5


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (सपत्नहा) शत्रुनाशक (असपत्नः) शत्रुरहित (अभिराष्ट्रः) राष्ट्र को अधिकृत किये हुए राष्ट्रस्वामी (विषासहिः) विशेष करके शत्रुओं का अभिभव करनेवाला (एषां भूतानाम्) इन शत्रुभूत प्रणियों का (जनस्य च) और स्व जनगण का भी (विराजानि) राजा रूप से होता हूँ ॥५॥
भावार्थभाषाः - राजा को शत्रुनाशक या स्वयं शत्रुरहित राष्ट्र का संचालन करनेवाला, शत्रुओं का अभिभव करनेवाला तथा अपने राष्ट्र के जनगण में ऊँचे रूप में विराजवान होनेवाला प्रभावशाली होना चाहिये ॥५॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

उत्तम प्रबन्ध

पदार्थान्वयभाषाः - [१] राजा कहता है कि प्रजा इस प्रकार कर आदि के देने में अनुकूलता रखे कि (अहम्) = मैं (असपत्नः) = सपत्नों से रहित, सपत्नहाराष्ट्र के अन्य पति बनने के दावेदारों को नष्ट करनेवाला, (अभिराष्ट्रः) = प्राप्त राज्यवाला तथा (विषासहिः) = शत्रुओं को कुचलनेवाला होऊँ । [२] (यथा) = जिससे (अहम्) = मैं (एषां भूतानाम्) = इन सब प्राणियों के (विराजानि) = विशिष्टरूप से जीवन को व्यवस्थित करनेवाला बनूँ। (जनस्य च) = और राष्ट्र व्यवस्था के अंगभूत इन अपने लोगों के जीवन को भी नियमित व दीप्त करनेवाला बनूँ ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - राजा असपत्न हो, विषासहि हो । सब राष्ट्रवासियों व प्रबन्धकों के जीवनों को व्यवस्थित करनेवाला हो । सम्पूर्ण सूक्त का भाव यह है कि राजा राष्ट्र को अन्तः व बाह्य शत्रुओं से सुरक्षित करके सुव्यवस्थित करे। ऐसे ही राष्ट्र में सब प्रकार की उन्नतियों का सम्भव हो सकता है। ऐसे ही राष्ट्र में 'ऊर्ध्वग्रावा सर्व आर्बुदि' पुरुष बना करते हैं । 'ऊध्वश्चासौ ग्रावा च' गुणों की दृष्टि से उन्नत, शरीर की दृष्टि से वज्रतुल्य । 'सर्पः ' सदा क्रियाशील और इस क्रियाशीलता से उन्नति के शिखर पर पहुँचनेवाला 'आर्बुदि'। इनके लिये कहते हैं-
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (सपत्नहा) शत्रुहन्ता (असपत्नः) शत्रुरहितः (अभिराष्ट्रः) अभिगतं राष्ट्रं येन तथाभूतो राष्ट्रस्वामी (विषासहिः) विशेषेण शत्रूणां सोढाऽभिभविता-एषां भूतानाम्)  एतेषां शत्रुभूतानाम् (जनस्य च) प्रजाजनगणस्य च (विराजानि) राजरूपेण भवानि ॥५॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Destroyer of enemies, free from enemy forces, I must still be a challenger and subduer of rivals, adversaries, oppositions and contradictions so that as ruler of the state I may control and rule over these citizens and a host of other forms of life.