त्वं म॒खस्य॒ दोध॑त॒: शिरोऽव॑ त्व॒चो भ॑रः । अग॑च्छः सो॒मिनो॑ गृ॒हम् ॥
अंग्रेज़ी लिप्यंतरण
मन्त्र उच्चारण
tvam makhasya dodhataḥ śiro va tvaco bharaḥ | agacchaḥ somino gṛham ||
पद पाठ
त्वम् । म॒खस्य॑ । दोध॑तः । शिरः॑ । अव॑ । त्व॒चः । भ॒रः॒ । अग॑च्छः । सो॒मिनः॑ । गृ॒हम् ॥ १०.१७१.२
ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:171» मन्त्र:2
| अष्टक:8» अध्याय:8» वर्ग:29» मन्त्र:2
| मण्डल:10» अनुवाक:12» मन्त्र:2
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ब्रह्ममुनि
पदार्थान्वयभाषाः - (त्वम्) हे ऐश्वर्यवन् परमेश्वर ! तू (मखस्य दोधतः) यज्ञ जैसे श्रेष्ठ कर्म को कम्पित-विचलित-विनष्ट करनेवाले का (त्वचः-शिरः-अव भरः) त्वचा से-शिर से सर को उतार दे (सोमिनः गृहम्-अगच्छः) उपासनारसवाले उपासक के हृदयघर को प्राप्त हो ॥२॥
भावार्थभाषाः - परमात्मा यज्ञ जैसे श्रेष्ठ कर्म के ध्वंस करनेवाले की मूर्धा को नीचे गिरा देता है और अपने उपासक के हृदयघर को प्राप्त होता है ॥२॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार
यज्ञ-ध्वंसक का विनाश
पदार्थान्वयभाषाः - [१] हे प्रभो ! (त्वम्) = आप (मखस्य दोधतः) = यज्ञ को कम्पित करनेवाले पुरुष के यज्ञ- विध्वंसक के (शिरः) = सिर को (त्वचः) = त्वचा से, इस त्वचा से आवृत शरीर से (अवभर:) = अलग कर देते हैं। जो व्यक्ति यज्ञशील न बनकर औरों से किये जानेवाले यज्ञों में भी विघ्न करनेवाला होता है, प्रभु उसे विनष्ट करते हैं । [२] यज्ञादि में प्रवृत्त रहकर (सोमिनः) = सोम का रक्षण करनेवाले पुरुष के (गृहं अगच्छ:) = घर में प्रभु जाते हैं । यज्ञशील पुरुष के गृह में प्रभु का वास होता है । इस प्रभु के वास से उसके जीवन में वासनाएँ नहीं पनपती और वह सोम का [= वीर्य का] रक्षण करनेवाला बनता है ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- हम यज्ञशील बनकर प्रभु को अपने गृह में आमन्त्रित करें ।
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ब्रह्ममुनि
पदार्थान्वयभाषाः - (त्वम्) हे ऐश्वर्यवन् परमेश्वर ! (मखस्य दोधतः) यज्ञस्य श्रेष्ठकर्मणो यो कम्पयति विचालयति तस्य कम्पयमानस्य (त्वचः-शिरः-अव भरः) त्वक्तः शरीरतः शिरोऽवहरसि पृथक्करोषि (सोमिनः-गृहम्-अगच्छः) उपासनारसवतः-उपासकस्य हृदयगृहं गच्छसि प्राप्नोषि ॥२॥
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डॉ. तुलसी राम
पदार्थान्वयभाषाः - You forsake the body and mind of the dissolute scoffer of yajna, and you reach and bless the house of the devotee who performs yajna and offers you the homage of exalted devotion, joyous divine soma.
