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त्वं त्यमि॒टतो॒ रथ॒मिन्द्र॒ प्राव॑: सु॒ताव॑तः । अशृ॑णोः सो॒मिनो॒ हव॑म् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tvaṁ tyam iṭato ratham indra prāvaḥ sutāvataḥ | aśṛṇoḥ somino havam ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

त्वम् । त्यम् । इ॒टतः॑ । रथ॑म् । इन्द्र॑ । प्र । आ॒वः॒ । सु॒तऽव॑तः । अशृ॑णोः । सो॒मिन॑ । हव॑म् ॥ १०.१७१.१

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:171» मन्त्र:1 | अष्टक:8» अध्याय:8» वर्ग:29» मन्त्र:1 | मण्डल:10» अनुवाक:12» मन्त्र:1


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ब्रह्ममुनि

इस सूक्त में परमात्मा श्रेष्ठकर्मध्वंसक की मूर्धा को नीचे करता है, उपासक की कामना पूरी करता, उसके हृदय में साक्षात् होता है, इत्यादि विषय हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र त्वम्) हे ऐश्वर्यवन् परमात्मन् ! तू (इटतः) तेरे प्रति गति करते हुए (सुतावतः) उपासनारसवाले उपासना करते हुए के (त्यं रथं प्र-आवः) उस मनोरथ की भलीभाँति रक्षा करता है तथा (सोमिनः) उस सोमरस सम्पादन करनेवाले के (हवम्) प्रार्थनावचन को (अशृणोः) तू सुनता है-पूरा करता है ॥१॥
भावार्थभाषाः - परमात्मा के प्रति जानेवाले और उसकी उपासना करनेवाले के मनोरथ की परमात्मा रक्षा करता है, उसके प्रार्थनावचनों को सुनता है, कामना पूरी करता है ॥१॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

सुतावान् 'इट'

पदार्थान्वयभाषाः - [१] हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यवन् प्रभो ! (त्वम्) = आप (सुतावतः) = अपने अन्दर सोम का सम्पादन करनेवाले (इटतः) = गतिशील, क्रियामय जीवनवाले पुरुष के (त्यं रथम्) = उस शरीररूप रथ को (प्रावः) = प्रकर्षेण रक्षित करते हैं । [२] हे प्रभो! इस (सोमिनः) = क्रियाशीलता के द्वारा वासना को विनष्ट करके सोम का रक्षण करनेवाले पुरुष की (हवम्) = पुकार को (अशृणोः) = आप सुनते हैं । प्रार्थना उसी की पूर्ण होती है, जो सोम का रक्षण करता है। वस्तुतः जीवन में सब उन्नतियों का मूल यह सोमरक्षण ही है। इसके लिये वासना का विनाश आवश्यक है । और वासना विनाश के लिये क्रियाशील बनने की आवश्यकता है।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - हम क्रियाशीलता द्वारा सोम का रक्षण करें और प्रभु के प्रिय बनें ।
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ब्रह्ममुनि

सूक्तेऽत्र परमात्मा श्रेष्ठकर्मणो ध्वंसकस्य जनस्य मूर्धा नीचैः करोति, स्वोपासकस्य कामनां पूरयति हृदये साक्षात् भवति, इत्यादि विषयाः सन्ति।

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र त्वम्) हे ऐश्वर्यवन् परमात्मन् ! त्वम् (इटतः) त्वां प्रतिगच्छतः “इट गतौ” [भ्वादि०] ततः शतृप्रत्ययः (सुतावतः) उपासनारसवतः-उपासनां कुर्वतः (त्यं रथं प्र-आवः) तं मनोरथं प्रकृष्टं रक्ष-रक्षसि, तथा (सोमिनः-हवम्-अशृणोः) तस्योपासनारससम्पादकस्य प्रार्थनावचनं शृणोषि-पूरयसि ॥१॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Indra, lord omnipotent, you hear the invocation and prayer of soma yajna, and you honour, protect and sustain the cherished desire of the celebrant who moves on way to divinity through meditation and yajna and distils the Soma for offering.