पदार्थान्वयभाषाः - [१] (पूषा) = वह सब का पोषक प्रभु (पथाम् प्रपथे) = मार्गों के प्रकृष्ट मार्ग में (अजनिष्ट) = प्रादुर्भूत होता है। मार्गों में प्रकृष्ट मार्ग मध्य मार्ग है । वस्तुतः यह मध्य मार्ग ही गत मन्त्र का 'अभयतम मार्ग' है। इसी मार्ग को अन्तारिक्ष मार्ग भी कहते हैं, क्योंकि यहाँ ' अन्तराक्षि' -बीच में रहता है । अतिजागरणशील व अतिस्वप्नशील को प्रभु का दर्शन नहीं होता, युक्ताहार-विहार वाला ही प्रभुदर्शन का अधिकारी होता है । [२] वे प्रभु (दिवः) = प्रकाश के (प्रपथे) = प्रकृष्ट मार्ग में प्रकट होते हैं और (पृथिव्या:) = विस्तृत शक्तियों वाले शरीर के प्रपथे प्रकृष्ट मार्ग में प्रकट होते हैं । प्रभु का दर्शन उसी व्यक्ति को होता है जो मस्तिष्क को ज्ञान-सम्पन्न व शरीर को शक्ति सम्पन्न बनाता है । [३] (प्रजानन्) = एक समझदार पुरुष (उभे) = दोनों (प्रियतमे) = अत्यन्त प्रिय (सधस्थे) = [सह + स्थ] मिलकर बैठने के स्थानों का (अभि) = लक्ष्य करके (आचरति) = धर्मकार्यों का आचरण करता है (च) = और (पराचरति) = अधर्म के कार्यों को अपने से दूर करता है प्रत्येक सद्गृहस्थ को चाहिए कि अपने घर में प्रातः - सायं दोनों समय मिलकर सब के बैठने की व्यवस्था हो । यह यज्ञ-स्थान 'सधस्थ ' है 'अस्मिन् सधस्थे अध्युत्तरास्मिन् विश्वे देवा यजमानश्च सीदत' । यह घर के प्रत्येक सभ्य को प्रियतम हो। इसमें स्थित होकर सब उत्तम कर्मों को करने का संकल्प करें, और निश्चय करें कि सब दुरितों को वे अपने से दूर करेंगे। =
भावार्थभाषाः - भावार्थ- हम मध्य मार्ग पर चलेंगे, 'अति' से बचते हुए ज्ञान को बढ़ायेंगे, शरीर को दृढ़ करेंगे। प्रातः-सायं यज्ञवेदि में सब एकत्रित होकर उत्तम कर्मों को करने व दुरितों से बचने का निश्चय करेंगे।