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पू॒षा त्वे॒तश्च्या॑वयतु॒ प्र वि॒द्वानन॑ष्टपशु॒र्भुव॑नस्य गो॒पाः । स त्वै॒तेभ्य॒: परि॑ ददत्पि॒तृभ्यो॒ऽग्निर्दे॒वेभ्य॑: सुविद॒त्रिये॑भ्यः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

pūṣā tvetaś cyāvayatu pra vidvān anaṣṭapaśur bhuvanasya gopāḥ | sa tvaitebhyaḥ pari dadat pitṛbhyo gnir devebhyaḥ suvidatriyebhyaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

पू॒षा । त्वा॒ । इ॒तः । च्य॒व॒य॒तु॒ । प्र । वि॒द्वान् । अन॑ष्टऽपशुः । भुव॑नस्य । गो॒पाः । सः । त्वा॒ । ए॒तेभ्यः॑ । परि॑ । द॒द॒त् । पि॒तृऽभ्यः॑ । अ॒ग्निः । दे॒वेभ्यः॑ । सु॒ऽवि॒द॒त्रिये॑भ्यः ॥ १०.१७.३

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:17» मन्त्र:3 | अष्टक:7» अध्याय:6» वर्ग:23» मन्त्र:3 | मण्डल:10» अनुवाक:2» मन्त्र:3


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (पूषा भुवनस्य गोपाः) सूर्य भूतमात्र उत्पन्नमात्र प्राणियों का रक्षक है, (अनष्टपशुः) अनष्टपशु व अनश्वर रश्मिवाला है, उसकी रश्मियों का कभी लोप नहीं होता (प्र विद्वान्) वह प्रसिद्ध जाना जानेवाला है (त्वा-इतः प्रच्यावयतु) हे मरणासन्न प्राणी ! तुझे इस देह से पृथक् करता है (सः-अग्निः) वह अग्रणायक परमात्मा (त्वा) तुझे (एतेभ्यः पितृभ्यः) इन प्रसिद्ध माता-पिताओं आदि से पुनर्जन्मार्थ (सुविदत्रियेभ्यः-देवेभ्यः) शोभनज्ञान ऐश्वर्यवाले मुक्तात्माओं के लिये (परिददत्) समर्पित करता है-सम्प्रेरित करता है ॥ अथवा (पूषा भुवनस्य गोपाः) पोषण करनेवाला प्राणिमात्र का रक्षक परमात्मा (अनष्टपशुः) अनश्वर देखनेवाले जीव जिसके अधीन हैं, वह (प्रविद्वान्) उन देखनेवाले जीवों के मध्य में प्रकृष्ट ज्ञानवाला है (त्वा-इतः प्रच्यावयतु) हे पुत्र या शिष्य ! तुझे प्रकृष्ट मार्ग में चलावे (सः-अग्निः) वह अग्रणायक परमात्मा (त्वा) तुझे (एतेभ्यः पितृभ्यः) इन माता-पिता आदि के लिए पुनर्जन्मार्थ अथवा (सुविदत्रियेभ्यः-देवेभ्यः) शोभन ऐश्वर्यवाले मुक्त आत्माओं के लिए मोक्षलाभार्थ (परिददत्) तुझे प्रकृष्ट में-पूरे में प्रेरित करता है, क्योंकि वह तेरा उपास्य देव है ॥३॥
भावार्थभाषाः - १−सूर्य उत्पन्नमात्र प्राणियों का रक्षक है, उसकी रश्मियाँ नष्ट नहीं होतीं, वह रश्मियों के द्वारा प्रसिद्धरूप में जाना जाता है। म्रियमाण-मरते हुए प्राणी को इस देह से पृथक् कर देता है। परन्तु परमात्मा माता-पिताओं आदि के लिये पुनर्जन्मार्थ देता है और मुक्ति के पात्र उत्तम अधिकारी को मुक्तों में सौंप देता है ॥ २- प्राणी मात्र का पोषक रक्षक परमात्मा नित्य वर्तमान ज्ञानदृष्टि से देखनेवालों का स्वामी है, वह उन मुक्त जीवात्माओं के मध्य में प्रकृष्ट ज्ञानवान् अर्थात् सर्वज्ञ है। वह ही संसार के मातापिताओं में जीवात्मा को जन्मार्थ भेजता है और शोभन ऐश्वर्यवाले मुक्तों में भी मोक्षार्थ भेजता है ॥३॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

अनष्टपशुः

पदार्थान्वयभाषाः - [१] गत मन्त्रों के अनुसार 'महान् विवस्वान्'- परमात्मा (विवस्वान्) = आत्मा के लिये वेदवाणी को देते हैं और उसके द्वारा (पूषा) = हमारा सब प्रकार से पोषण करनेवाले प्रभु (त्वा) = तुझे (इतः) = इस संसार से (च्यावयतु) = मुक्त करें। वेदज्ञान के द्वारा मनुष्य विषयों में फँसने से बच जाता है। इधर से छूटता है और उधर [प्रभु से] इसका मेल होता है । [२] यह पूषा ('प्रविद्वान्') = प्रकृष्ट ज्ञानी हैं, ये हमें ठीक ही मार्गदर्शन कराते हैं। जैसे एक ग्वाला अपनी गौवों को नष्ट नहीं होने देता, उसी प्रकार ये प्रभु भी (अनष्टपशुः) = अपने पशुओं को नष्ट नहीं होने देते। प्रभु ग्वाले हैं, उनकी गौवें । इस प्रकार वे प्रभु (भुवनस्य गोपाः) = सारे ब्रह्माण्ड के रक्षक हैं। [३] वे प्रभु (ही) = हम इस संसार में पितरों के द्वारा हमारा पालन करते हैं। प्रभु पालक हैं, अपनी पालन क्रिया में पितरों को वे निमित्त बनाते हैं । (स अग्निः) = वे प्रभु (त्वा) = तुझे (एतेभ्यः पितृभ्यः) = इन पितरों के लिये, जो कि (देवेभ्यः) = देववृत्ति वाले हैं तथा (सुविदत्रियेभ्यः) = उत्तम ज्ञान के द्वारा रक्षण करनेवाले हैं, (परिददत्) = देते हैं । इन पितरों को निमित्त बनाकर वे हमारा रक्षण करते हैं ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - प्रभु पूषा हैं । हमें उत्तम पितरों के द्वारा आगे ले चलते हैं और इस प्रकार वे प्रभु हमारा रक्षण करते हैं। संसार में आसक्त होने से प्रभु ही हमें बचाते हैं ।
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (पूषा भुवनस्य गोपाः) आदित्यो भूतमात्रस्य-जातमात्रस्य रक्षकः “भूतानां गोपायितादित्यः” [निरु०७।१०] (अनष्टपशुः) अनश्वरदृश्यरश्मिमान् (प्रविद्वान्) प्रख्यातवेद्यमानः ‘कर्मणि कर्तृप्रत्ययो व्यत्ययेन’ (त्वा-इतः च्यावयतु) हे म्रियमाण प्राणिन् ! त्वामितो देहात् पृथक् करोति (सः-अग्निः) स अग्रणायकः परमात्मा (त्वा) त्वाम् (एतेभ्यः पितृभ्यः) एभ्योऽत्रत्येभ्यः प्रसिद्धेभ्यो मातापितृभ्यो जनकेभ्यः पुनर्जन्मार्थम्, यद्वा (सुविदत्रियेभ्यः-देवेभ्यः) शोभनज्ञानैश्वर्यवद्भ्यो मोक्षैश्वर्यवद्भ्यो मुक्तेभ्यः (परिददत्) समर्पयति सम्प्रेरयति ॥ यद्वा (पूषा भुवनस्य गोपाः) पोषयिता प्राणिमात्रस्य रक्षकः परमात्मा (अनष्टपशुः) अनश्वराः पश्यन्तो जीवा यस्याधीनं सन्ति तथाभूतः (प्रविद्वान्) तेषां पश्यतां जीवानां मध्ये प्रकृष्टज्ञानवान् (त्वा इतः प्रच्यावयतु) हे पात्र ! पुत्र ! शिष्य ! त्वां प्रकृष्टं मार्गं गमयतु (सः-अग्निः) स खलु ह्यग्रणायकः परमात्मा (त्वा) त्वाम् ( एतेभ्यः पितृभ्यः) अत्रत्येभ्यो जनकेभ्यः पुनर्जन्मार्थम्, यद्वा (सुविदत्रियेभ्यः-देवेभ्यः) शोभनैश्वर्यवद्भ्यो मुक्तेभ्यो मोक्षलाभार्थम् (परिददत्) परिप्रेरयतु स त्वया खलूपास्यः ॥३॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - O man, may Pusha, lord of life and nourishment, omniscient sustainer and pervasive protector of the world, whose light and life of forms never goes out of existence, inspire you and lead you on the right path from here. May he, leading lord self-refulgent Agni, dedicate you to noble parents and brilliant generous teachers.