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यस्ते॑ द्र॒प्सः स्क॒न्नो यस्ते॑ अं॒शुर॒वश्च॒ यः प॒रः स्रु॒चा । अ॒यं दे॒वो बृह॒स्पति॒: सं तं सि॑ञ्चतु॒ राध॑से ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yas te drapsaḥ skanno yas te aṁśur avaś ca yaḥ paraḥ srucā | ayaṁ devo bṛhaspatiḥ saṁ taṁ siñcatu rādhase ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यः । ते॒ । द्र॒प्सः । स्क॒न्नः । यः । ते॒ । अं॒शुः । अ॒वः । च॒ । यः । प॒रः । स्रु॒चा । अ॒यम् । दे॒वः । बृह॒स्पतिः॑ । सम् । तम् । सि॒ञ्च॒तु॒ । राध॑से ॥ १०.१७.१३

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:17» मन्त्र:13 | अष्टक:7» अध्याय:6» वर्ग:25» मन्त्र:3 | मण्डल:10» अनुवाक:2» मन्त्र:13


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (ते) हे परमात्मन् ! तेरा (यः-द्रप्सः-स्कन्नः) प्राप्त आनन्दप्रद रस (ते) तेरा (यः अंशुः) जो रश्मि ज्योति (स्रुचा) स्तुति वाणी द्वारा (यः-अवः-च परः-च) जो इस लोक में-इस जीवन में और परलोक में-परजीवन में प्राप्त होता है (अयं देवः-बृहस्पतिः) यह दिव्य प्राण (राधसे) सुखसमृद्धि के लिये (तं संसिञ्चतु) उस आनन्दरश्मि और ज्ञानरश्मि को मेरे में सम्यक् प्रवाहित करे ॥१३॥
भावार्थभाषाः - आध्यात्मिक दृष्टि में परमात्मा का आनन्दरस और ज्ञानज्योति स्तुति करने से इस जीवन में और परजीवन में प्राप्त होते हैं। प्राण उन्हें सुखसमृद्धि के लिए जीवन में प्रवाहित कर देता है ॥१३॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

अपरा व पराविद्या की प्राप्ति

पदार्थान्वयभाषाः - [१] (यः) = जो (ते) = तेरा (द्रप्सः) = ज्ञानाग्नि की दीप्ति का साधनभूत सोम (स्कन्नः) = शरीर में ही ऊर्ध्वगतिवाला हुआ है । (यः) = जो सोम (ते) = तेरा (अंशुः) = ज्ञान की किरण के रूप में है । यह सोम (अवः च) = निचले क्षेत्र में, अपराविद्या के क्षेत्र में (परः च) = और परक्षेत्र में अर्थात् पराविद्या के क्षेत्र में (अंशुः) = ज्ञानार्थ किरण बनता है। इस सोम से ही ज्ञानाग्नि दीप्त होती है और मनुष्य प्रकृतिविद्या व आत्मविद्या को अपना पाता है। अपनाने का प्रकार है- (स्रुचा) = चम्मच के द्वारा। जैसे चम्मच से अग्नि में घृतादि की आहुति दी जाती है, इसी प्रकार आचार्य से वाणी रूप चम्मच के द्वारा [वाग्वै स्रुचः श० ६ । ३ । १ । ८] शिष्य में ज्ञान की आहुति दी जाती है। [२] (अयं देवः बृहस्पतिः) = यह प्रकाश का पुंज - वेदवाणी का पति प्रभु (तम्) = उस सोम को (राधसे) = सब प्रकार की सफलताओं के लिये (सं सिञ्चतु) = तेरे में संसिक्त करे । प्रभु कृपा से हम सोम को शरीर में ही व्याप्त करनेवाले बनें और यह सोम हमें सभी क्षेत्रों में सफलता को प्राप्त करानेवाला हो ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- सोमरक्षण से हम प्रकृतिविद्या व आत्मविद्या के क्षेत्र में उन्नति करें। इस सोम के द्वारा हमें सर्वत्र सफलता मिले।
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (ते) हे परमात्मन्  ! तव (यः-द्रप्सः स्कन्नः) आनन्दरसः प्राप्तः (ते) तव (यः-अंशुः) यो रश्मिः-ज्योतिः (स्रुचा) वाचा स्तुत्या “वाग्वै स्रुक्” [श०६।३।१।८] (यः-अवः-च-परः च) अवरेऽस्मिन् लोके जीवने परस्मिन् लोके जीवने वा प्राप्तो भवति (अयं देवः-बृहस्पतिः) एष दिव्यः प्राणः “एष प्राणः उ एव बृहस्पतिः” [श०१४।४।१।२२] (राधसे) सुखसमृद्धये (तं संसिञ्चतु) तमानन्दरसं ज्ञानरश्मिं च मयि सम्यक् प्रवाहयतु ॥१३॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - O Soma, lord of life, giver of light and bliss, your nectar of divinity that vibrates every where, the radiations of light and spiritual awareness expansive here in existence and existent there in absolute time and space, that very nectar of life and light of existence, may Brhaspati, this generous spirit of infinite knowledge and speech, shower upon us by the Word and vibrations of divinity for our fulfilment of life here and hereafter.