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यस्ते॑ द्र॒प्सः स्कन्द॑ति॒ यस्ते॑ अं॒शुर्बा॒हुच्यु॑तो धि॒षणा॑या उ॒पस्था॑त् । अ॒ध्व॒र्योर्वा॒ परि॑ वा॒ यः प॒वित्रा॒त्तं ते॑ जुहोमि॒ मन॑सा॒ वष॑ट्कृतम् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yas te drapsaḥ skandati yas te aṁśur bāhucyuto dhiṣaṇāyā upasthāt | adhvaryor vā pari vā yaḥ pavitrāt taṁ te juhomi manasā vaṣaṭkṛtam ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यः । ते॒ । द्र॒प्सः । स्कन्द॑ति । यः । ते॒ । अं॒शुः । बा॒हुऽच्यु॑तः । धि॒षणा॑याः । उ॒पऽस्था॑त् । अ॒ध्व॒र्योः । वा॒ । परि॑ । वा॒ । यः । प॒वित्रा॑त् । तम् । ते॒ । जु॒हो॒मि॒ । मन॑सा । वष॑ट्ऽकृतम् ॥ १०.१७.१२

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:17» मन्त्र:12 | अष्टक:7» अध्याय:6» वर्ग:25» मन्त्र:2 | मण्डल:10» अनुवाक:2» मन्त्र:12


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (ते) हे परमात्मन् ! तेरा (द्रप्सः) रस (स्कन्दति) पृथिवी पर प्राप्त होता है (ते) तेरा (यः अंशुः) वाष्परूप (बाहुच्युतः) बलवीर्यद्वारा प्राप्त (धिषणायाः उपस्थात्) वाणी के स्थान से (अध्वर्योः) द्युलोक से परे (यः पवित्रात्-वा) और जो अन्तरिक्ष से परे (ते-तं वषट्कृतम्) तेरे उस वज्रघोषकृत या क्रिया से निष्पादित शिल्पविद्याजन्य को (मनसा जुहोमि) मन से विचार करता हूँ-मन में धारण करता हूँ ॥१२॥
भावार्थभाषाः - परमात्मा का रचा सूर्य या रसरूप जलांशु अन्तरिक्ष के माध्यम से पृथिवी पर प्राप्त होता है, उस सूर्य या जल का मन से विचार करके अधिकाधिक उपयोग करना चाहिए ॥१२॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

सोमरक्षण के लाभ

पदार्थान्वयभाषाः - [१] (य) = जो (ते) = तेरा (द्रप्स:) = ज्ञानाग्नि की दीप्ति का हेतुभूत सोम (स्कन्दति) = शरीर में ही ऊर्ध्वगतिवाला होता है । (यः) = जो यह (ते) = तेरा सोम (अंशुः) = [Ray of light] प्रकाश की किरण ही है । (बाहुच्युतः) = जो यह सोम तेरी बाहुओं को सिक्त करनेवाला है [to wet thoroughly, to moisten] अर्थात् तेरी भुजाओं में व्याप्त होकर उन्हें शक्ति सम्पन्न बनानेवाला है । [२] (धिषणायाः) = बुद्धि की (उपस्थात्) = उपासना के हेतु से (वा) = तथा (अध्वर्योः) = हिंसाशून्य जीवन वाले पुरुष के (परिपवित्रात्) = सर्वतः पवित्र हृदय के हेतु से (तं) = उस सोम को (ते जुहोमि) = तेरे अन्दर ही आहुत करता हूँ । सोम के शरीर में ही आहुत होने के दो लाभ हैं। प्रथम तो यह कि बुद्धि तीव्र होती है और दूसरा यह कि हृदय में हिंसा - द्वेष आदि की भावनाएँ स्थान नहीं पातीं । बुद्धि की उपासना व हृदय की पवित्रता के दृष्टिकोण से इस सोम का रक्षण नितान्त आवश्यक है । [३] 'इस सोम की आहुति शरीर में ही किस प्रकार दी जाती है' ? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए कहते हैं कि (मनसा वषट् कृतम्) = यह सोम मन के द्वारा शरीर में आहुत होता है। मन के विचार पवित्र होंगे तो सोम का रक्षण होगा । यदि ये विचार पवित्र न हुए और वासनाओं की प्रबलता हुई तब यह सोम शरीर में आहुत न हो पाएगा। उस समय भोगाग्नि में आहुत होकर यह हमें रोगाक्रान्त कर देगा। 'मनसा' शब्द में मननशीलता की भावना है। मननशील मनुष्य सोम का रक्षण कर पाता है । यह सोम उसको अधिक मनन के योग्य बनाता है।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- सोम सुरक्षित होने पर भुजाओं को शक्तिशाली बनाता है, बुद्धि को तीव्र करता है और हृदय को पवित्र बनाता है। मन की पवित्रता के बिना इसके रक्षण का सम्भव भी नहीं ।
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (ते) हे परमात्मन् ! तव (द्रप्सः) रसः (स्कन्दति) पृथिव्यां प्रगच्छति-प्रवहति (ते) तव (यः-अंशुः) वाष्परूपः (बाहुच्युतः) बलवीर्याभ्यां प्राप्तः (धिषणायाः-उपस्थात्) वाचः स्थानात् मेघात् “धिषणा वाक्” [निघ०१।११] (अध्वर्योः-परि वा) द्युलोकञ्च “द्यौरध्वर्युः” [मै०१।९।१] (यः-वा पवित्रात्) यश्चान्तरिक्षात् “अन्तरिक्षं वै पवित्रम्” [काठ०२६।१०] (ते) तव (तं वषट्कृतम्) तं वज्रघोषकृतं यद्वा “क्रियानिष्पादितम्” [ऋ०१।१६३।१५ दयानन्दः] शिल्पविद्याजन्यम् “वषट्कृतस्य शिल्पविद्याजन्यस्य” [ऋ०१।१२०।४ दयानन्दः] (मनसा जुहोमि) मनसा विचारयामि-स्वीकरोमि ॥१२॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - O Savita, lord giver of life and light of the world, the soma nectar of life that showers ever from divinity, that vigour and inspiration which is released from your hands and from the loving heart of exuberant Mother Nature filtered through her pure sattvic elements in the cosmic yajna, that nectar received at heart in the soul, I offer in homage with prayer.