पदार्थान्वयभाषाः - [१] (य) = जो (ते) = तेरा (द्रप्स:) = ज्ञानाग्नि की दीप्ति का हेतुभूत सोम (स्कन्दति) = शरीर में ही ऊर्ध्वगतिवाला होता है । (यः) = जो यह (ते) = तेरा सोम (अंशुः) = [Ray of light] प्रकाश की किरण ही है । (बाहुच्युतः) = जो यह सोम तेरी बाहुओं को सिक्त करनेवाला है [to wet thoroughly, to moisten] अर्थात् तेरी भुजाओं में व्याप्त होकर उन्हें शक्ति सम्पन्न बनानेवाला है । [२] (धिषणायाः) = बुद्धि की (उपस्थात्) = उपासना के हेतु से (वा) = तथा (अध्वर्योः) = हिंसाशून्य जीवन वाले पुरुष के (परिपवित्रात्) = सर्वतः पवित्र हृदय के हेतु से (तं) = उस सोम को (ते जुहोमि) = तेरे अन्दर ही आहुत करता हूँ । सोम के शरीर में ही आहुत होने के दो लाभ हैं। प्रथम तो यह कि बुद्धि तीव्र होती है और दूसरा यह कि हृदय में हिंसा - द्वेष आदि की भावनाएँ स्थान नहीं पातीं । बुद्धि की उपासना व हृदय की पवित्रता के दृष्टिकोण से इस सोम का रक्षण नितान्त आवश्यक है । [३] 'इस सोम की आहुति शरीर में ही किस प्रकार दी जाती है' ? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए कहते हैं कि (मनसा वषट् कृतम्) = यह सोम मन के द्वारा शरीर में आहुत होता है। मन के विचार पवित्र होंगे तो सोम का रक्षण होगा । यदि ये विचार पवित्र न हुए और वासनाओं की प्रबलता हुई तब यह सोम शरीर में आहुत न हो पाएगा। उस समय भोगाग्नि में आहुत होकर यह हमें रोगाक्रान्त कर देगा। 'मनसा' शब्द में मननशीलता की भावना है। मननशील मनुष्य सोम का रक्षण कर पाता है । यह सोम उसको अधिक मनन के योग्य बनाता है।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- सोम सुरक्षित होने पर भुजाओं को शक्तिशाली बनाता है, बुद्धि को तीव्र करता है और हृदय को पवित्र बनाता है। मन की पवित्रता के बिना इसके रक्षण का सम्भव भी नहीं ।