सप्तर्षियों से सम्पादित यज्ञ
पदार्थान्वयभाषाः - [१] प्रस्तुत तीन मन्त्रों का देवता 'सोम' है। 'सरस्वती के जल का पान' इस सोम के रक्षण से ही सम्भव है । इस सोम के कण ही ज्ञानाग्नि का ईंधन बनते हैं और तभी हम ज्ञानग्रहण की क्षमता वाले होते हैं । इन सोमकणों को 'द्रप्स:' [drops] कहा गया है, ये सोमकण [दृप्-दर्पति Light, inflame, candel] ज्ञानाग्नि को दीप्त करते हैं। जीवन को (प्रथमान् द्यून् अनु) = प्रथम दिनों का लक्ष्य करके अर्थात् ब्रह्मचर्याश्रम में यह (द्रप्स:) = सोम (चस्कन्द) = [ स्कन्द् - to ascend, go,move to become dry ] शरीर में ऊर्ध्वगतिवाला होता है, और शरीर में गति करते हुए इसका शरीर में ही शोषण हो जाता है, अर्थात् शरीर में ही यह व्याप्त हो जाता है । [२] यह सोम (इमं च योनिम्) = इस अपने उत्पत्ति स्थानभूत शरीर को और (यः च पूर्वः) = जो इस शरीर में सब से पूर्व स्थान है उस मस्तिष्क को (अनु) = लक्ष्य करके (चस्कन्द) = ऊर्ध्वगतिवाला व शरीर में ही व्याप्ति वाला होता है। यह सोम जहाँ शरीर को नीरोग बनाता है, वहाँ यह सोम मस्तिष्क में ज्ञानाग्नि को प्रज्वलित करता है। [३] मैं इस सोम को, जो (समानं योनिम् अनु संचरन्तम्) = जहाँ यह उत्पन्न हुआ उस शरीर में ही अंग-प्रत्यंग में रुधिर के साथ संचरण करते रहा है, उस द्रप्सम् ज्ञानाग्नि की दीप्ति के साधनभूत सोम को (सप्तहोत्राः अनु) = सात यज्ञों का लक्ष्य करके (जुहोमि) = आहुत करता हूँ। 'सप्त ऋषयः प्रतिहिताः शरीरे' प्रत्येक शरीर में सात ऋषि रखे गये हैं । 'कर्णाविमौ नासिक् चक्षणी मुखम्'=दो कान, दो नासिका छिद्र, दो आँखें व मुख । इनसे शब्द, गन्ध, रूप व रसादि विषयों का ग्रहण होकर निरन्तर ज्ञानयज्ञ चल रहे हैं। इन ज्ञानयज्ञों के चलने का सम्भव इस सोम के रक्षण पर ही है। इसी ने इन सप्तर्षियों को सबल बनाना है। इसी से शक्ति सम्पन्न होकर ये ऋषि इन सात ज्ञान यज्ञों को चलाते रहते हैं।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- हम ब्रह्मचर्याश्रम में सोम का रक्षण करें। यह सोम शरीर को सबल बनाये व मस्तिष्क को दीप्त करे। शरीर में ही व्याप्त होता हुआ यह शरीर सप्तर्षियों से सम्पादित ज्ञानयज्ञ में आहुत हो ।