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प्रसू॑तो भ॒क्षम॑करं च॒रावपि॒ स्तोमं॑ चे॒मं प्र॑थ॒मः सू॒रिरुन्मृ॑जे । सु॒ते सा॒तेन॒ यद्याग॑मं वां॒ प्रति॑ विश्वामित्रजमदग्नी॒ दमे॑ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

prasūto bhakṣam akaraṁ carāv api stomaṁ cemam prathamaḥ sūrir un mṛje | sute sātena yady āgamaṁ vām prati viśvāmitrajamadagnī dame ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

प्रऽसू॑तः । भ॒क्षम् । अ॒क॒र॒म् । च॒रौ । अपि॑ । स्तोम॑म् । च॒ । इ॒मम् । प्र॒थ॒मः । सू॒रिः । उत् । मृ॒जे॒ । सु॒ते । सा॒तेन॑ । यदि॑ । आ । अग॑मम् । वा॒म् । प्रति॑ । वि॒श्वा॒मि॒त्र॒ज॒म॒द॒ग्नी॒ इति॑ । दमे॑ ॥ १०.१६७.४

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:167» मन्त्र:4 | अष्टक:8» अध्याय:8» वर्ग:25» मन्त्र:4 | मण्डल:10» अनुवाक:12» मन्त्र:4


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (विश्वामित्रजमदग्नी) हे सर्वमित्र ब्रह्मा तथा प्रज्वालिताग्निवाले पुरोहित ! (वां प्रति) तुम दोनों के सम्मुख (सातेन) जनगण द्वारा दिये राज्याधिकार से (सुते) राजसूययज्ञ निष्पन्न हो जाने पर (आगमम्) मैं राजपद पर आ विराजा हूँ (प्रसूतः) तुम दोनों से प्रेरित हुआ (भक्षम्-अकरम्) राष्ट्र का भोग करता हूँ (यदि चरौ) यदि आचरणीय सेवनीय (अपि च-इमं स्तोमम्) और भी इस-स्तोतव्य राष्ट्र को (प्रथमः सूरिः) प्रमुख विद्वान् ब्रह्मात्मा, परमात्मा (उत्-मृजे) शोधन करे-अनुमोदन करे ॥४॥
भावार्थभाषाः - राजसूययज्ञ को ब्रह्मा और पुरोहित संपन्न करें, इनके सम्मुख प्रजा द्वारा दिया गया राज्याधिकार राजा स्वीकार करे और परमविद्वान् परम ब्रह्मा परमात्मा के आदेशानुसार उससे बल माँगता हुआ उसे चलाये, उसकी स्तुति करे ॥४॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

उपासक

पदार्थान्वयभाषाः - [१] (चरौ अपि प्रसूतः) = हवि में भी प्रेरित (हुवा) = हुआ मैं (भक्षं अकरम्) = भोजन को करता हूँ। यज्ञ करता हूँ, और यज्ञ करके यज्ञशेष का सेवन करता हूँ। इस हवि के द्वारा ही तो वस्तुतः प्रभु का सच्चा पूजन होता है। यज्ञशेष अमृत कहलाता है । यज्ञशेष के सेवन से मनुष्य नीरोग बना रहता है। [२] (च) = और (इमं स्तोमम्) = इस प्रभु के स्तोत्र को (प्रथमः) = विस्तृत हृदयवाला (सूरि:) = ज्ञानी बनकर (उन्मृजे) = परिशुद्ध करता हूँ । विशाल हृदय बनकर प्रभु का स्तवन करनेवाला बनता हूँ। [२] प्रभु कहते हैं कि (सुते) = इस उत्पन्न जगत् में सातेन सम्भजन के द्वारा यदि अगर हे (विश्वामित्र जमद्गनी) = विश्वामित्र व जमदग्नि ! (वां प्रति) = आपके प्रति (आगमम्) = आता हूँ तो (दमे) = इन्द्रियों के दमन के होने पर ही आता हूँ। प्रभु उन्हीं को प्राप्त होते हैं जो कि हृदय में सब के प्रति स्नेहवाले हैं, जो शरीर में दीप्त जाठराग्नि के कारण नीरोग हैं। प्रभु उन्हें ही प्राप्त होते हैं जो कि इन्द्रियदमन में प्रवृत्त होते हैं । प्रभु प्राप्ति के अधिकारी वे ही होते हैं जो सम्भजन को अपनाते हैं ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - प्रभु का पूजन यज्ञशेष के सेवन से होता है । सारा सूक्त तप द्वारा प्रकाश को प्राप्त करने व प्रभु का सच्चा उपासक होने का उल्लेख करता है। प्रभु का उपासक अभौतिक वृत्ति का होता है, सो 'अनिल' कहलाता है [न+इला] । ऐसा बनने के लिये यह प्राणों की शरण में जाता है, प्राणसाधना करता है, सो 'वातायन' हो जाता है । यही अगले सूक्त का ऋषि है । प्राणों के महत्त्व का प्रतिपादन करता हुआ यह कहता है-
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (विश्वामित्रजमदग्नी) हे सर्वमित्र ब्रह्मन् ! तथा प्रज्वलिताग्निमन् पुरोहित ! (वां प्रति) युवां प्रति युवयोः सम्मुखम् (सातेन सुते-आगमम्) दत्तेन राज्याधिकारदानेन राजसूययज्ञे निष्पन्ने सति अहमागच्छामि (प्रसूतः) युवाभ्यां प्रेरितः (भक्षम्-अकरम्) भोगमहं करोमि (यदि चरौ-अपि च-इमं स्तोमं प्रथमः सूरिः-उन्मृजे) यदि आचरणीयेऽपि चेमं स्तोतव्यं राष्ट्रं प्रमुखो विद्वान् ब्रह्मात्मा शोधयेदनुमोदयेत्, तस्य ब्रह्मात्मनः परमात्मनः स्तुतिरवश्यं कार्या ॥४॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - O Vishvamitra, holy spirit of universal love and friendship, Jamadagni, blazing fire and radiant light of yajna, as I come up to you duty bound in this ruling order enacted by the people, with the authority vested in me by the social will, now I, invested and anointed, take over the office of the state ruler, accept and honour this holy order, and first of all, with the best of knowledge, will and confidence, I would maintain the purity and glory of the order, I promise.