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अजै॑ष्मा॒द्यास॑नाम॒ चाभू॒माना॑गसो व॒यम् । जा॒ग्र॒त्स्व॒प्नः सं॑क॒ल्पः पा॒पो यं द्वि॒ष्मस्तं स ऋ॑च्छतु॒ यो नो॒ द्वेष्टि॒ तमृ॑च्छतु ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ajaiṣmādyāsanāma cābhūmānāgaso vayam | jāgratsvapnaḥ saṁkalpaḥ pāpo yaṁ dviṣmas taṁ sa ṛcchatu yo no dveṣṭi tam ṛcchatu ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अजै॑ष्म । अ॒द्य । अस॑नाम । च॒ । अभू॑म । अना॑गसः । व॒यम् । जा॒ग्र॒त्ऽस्व॒प्नः । स॒म्ऽक॒ल्पः । पा॒पः । यम् । द्वि॒ष्मः । तम् । सः । ऋ॒च्छ॒तु॒ । यः । नः॒ । द्वे॒ष्टि॒ । तम् । ऋ॒च्छ॒तु॒ ॥ १०.१६४.५

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:164» मन्त्र:5 | अष्टक:8» अध्याय:8» वर्ग:22» मन्त्र:5 | मण्डल:10» अनुवाक:12» मन्त्र:5


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (वयम्) हम (अनागसः) पापरहित (अभूम) होवें, तो (अद्य) आज ही (अजैष्म) शत्रु को जीत लें-जीत सकें (च) तथा (असनाम) सुख के सम्भाजी हो जावें (जाग्रत्) जाग्रत् अवस्थावाला (स्वप्नः) स्वप्न अवस्थावाला (पापः सङ्कल्पः) पापकारी संकल्प जिस मनुष्य का हो (यं द्विष्मः) जिसके प्रति हम द्वेष करते हैं (तं स-ऋच्छतु) उसको वह प्राप्त होवे (यः-नः-द्वेष्टि) जो हमारे प्रति द्वेष करता है (तम्-ऋच्छतु) उसके प्रति प्राप्त हो ॥५॥
भावार्थभाषाः - मनुष्य यदि पापरहित हो जावे, तो अपने विरोधियों पर विजय पा सकता है और सुखद वस्तुओं का सम्भाजक सम्यक् सेवन करनेवाला बन सकता है, अन्य मनुष्य का पापसंकल्प उसी को प्राप्त होता है, जो द्वेष करता है ॥५॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

'विजय-प्रभु-भजन- निष्पापता'

पदार्थान्वयभाषाः - [१] (अद्य) = आज (अजैष्म) = हम विजयी बने हैं, द्वेष आदि अशुभ वृत्तियों पर हमने विजय पायी है। (च) = और (असनाम) = हमने प्रभु का भजन किया है। अशुभ वृत्तियों से ऊपर उठना ही प्रभु का सच्चा सम्भजन है। इस प्रभु-भजन से (वयम्) = हम (अनागसः) = निष्पाप (अभूम) = हुए हैं। [२] (जाग्रत्) = जागती हुई अवस्था में होनेवाला (सः पापः संकल्पः) = वह पाप संकल्प तथा (स्वप्नः) = स्वप्नावस्था में होनेवाला पाप संकल्प (तम्) = उसको (ऋच्छतु) = प्राप्त हो (यं द्विष्मः) = जिसके = उसको साथ हम प्रीति नहीं कर पाते । (यः) = जो (नः) = हम सबके साथ (द्वेष्टि) = द्वेष करता है (तम्) = यह पाप संकल्प (ऋच्छतु) = प्राप्त हो । वस्तुतः द्वेष करनेवालों को ही अशुभ वृत्तियाँ प्राप्त होती हैं। जो भी एक व्यक्ति सारे समाज से द्वेष करने के कारण समाज का प्रिय नहीं रहता, उसी में इन पाप संकल्पों का वास हो। हम द्वेष से ऊपर उठकर पाप संकल्प से दूर हों ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - हम 'विजय, प्रभु-भजन व निष्पापता' को अपनायें । पाप संकल्प का परित्याग करें । सारा सूक्त पाप संकल्प से दूर होने का ही वर्णन कर रहा है। इसको दूर करनेवाला नैर्ऋतः कहलाता है, 'निरृति [दुराचरण] का हन्ता' । यह उस आनन्दमय प्रभु को [ॠ] अपना पोत [boat] बनाता है जिसके द्वारा यह भवसागर को तैरनेवाला होता है। इसी 'नैर्ऋत कपोत' का अग्रिम सूक्त में चित्रण है-
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (वयम्-अनागसः-अभूम) वयं पापरहिताः-भवेम (अद्य) अद्यैव (अजैष्म) शत्रून् जितवन्तो भवेम (च) तथा (असनाम) सुख-सम्भाजिनो भवेम (जाग्रत्-स्वप्नः) जाग्रदवस्थाकः स्वप्नावस्थाकः (पापः सङ्कल्पः) पापकारी सङ्कल्पो यस्य जनस्य (यं द्विष्मः) यं वयं दुष्टं द्विष्मः (तं सः-ऋच्छतु) तं प्रति स गच्छतु (यः-नः-द्वेष्टि) यो दुष्टोऽस्मान् द्वेष्टि (तम्-ऋच्छतु) तं प्रति प्राप्नोतु ॥५॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - (By the grace of Indra, Brahmanaspati, wakeful Pracheta and ever vibrant and loving Angirasa) we have won over sin and evil today, we have obtained love and freedom, and we have become pure and immaculate. Let the residue of sin and undesirable thought in the mind, if any, retire into that negativity hates us and which we reject.