'विजय-प्रभु-भजन- निष्पापता'
पदार्थान्वयभाषाः - [१] (अद्य) = आज (अजैष्म) = हम विजयी बने हैं, द्वेष आदि अशुभ वृत्तियों पर हमने विजय पायी है। (च) = और (असनाम) = हमने प्रभु का भजन किया है। अशुभ वृत्तियों से ऊपर उठना ही प्रभु का सच्चा सम्भजन है। इस प्रभु-भजन से (वयम्) = हम (अनागसः) = निष्पाप (अभूम) = हुए हैं। [२] (जाग्रत्) = जागती हुई अवस्था में होनेवाला (सः पापः संकल्पः) = वह पाप संकल्प तथा (स्वप्नः) = स्वप्नावस्था में होनेवाला पाप संकल्प (तम्) = उसको (ऋच्छतु) = प्राप्त हो (यं द्विष्मः) = जिसके = उसको साथ हम प्रीति नहीं कर पाते । (यः) = जो (नः) = हम सबके साथ (द्वेष्टि) = द्वेष करता है (तम्) = यह पाप संकल्प (ऋच्छतु) = प्राप्त हो । वस्तुतः द्वेष करनेवालों को ही अशुभ वृत्तियाँ प्राप्त होती हैं। जो भी एक व्यक्ति सारे समाज से द्वेष करने के कारण समाज का प्रिय नहीं रहता, उसी में इन पाप संकल्पों का वास हो। हम द्वेष से ऊपर उठकर पाप संकल्प से दूर हों ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - हम 'विजय, प्रभु-भजन व निष्पापता' को अपनायें । पाप संकल्प का परित्याग करें । सारा सूक्त पाप संकल्प से दूर होने का ही वर्णन कर रहा है। इसको दूर करनेवाला नैर्ऋतः कहलाता है, 'निरृति [दुराचरण] का हन्ता' । यह उस आनन्दमय प्रभु को [ॠ] अपना पोत [boat] बनाता है जिसके द्वारा यह भवसागर को तैरनेवाला होता है। इसी 'नैर्ऋत कपोत' का अग्रिम सूक्त में चित्रण है-