पदार्थान्वयभाषाः - [१] रोगी को सम्बोधन करते हुए कहते हैं कि (त्वा आहार्षम्) = तुझे रोग से बाहिर ले आता हूँ और इस प्रकार (त्वा अविदम्) = तुझे प्राप्त करता हूँ । (पुनः आगा:) = तू फिर से हमें प्राप्त हो । [२] हे (पुनर्नव) = फिर से स्वस्थ होकर नवीन जीवन को प्राप्त हुए हुए पुरुष ! सर्वाङ्ग हे सम्पूर्ण अंगोंवाले पुरुष ! (ते) = तेरे लिये (सर्वं चक्षुः) = पूर्ण स्वस्थ (दृष्टि च) = और (ते) = तेरे लिये (सर्वं आयुः) = पूर्ण जीवन (अविदम्) = मैंने प्राप्त कराया है।
भावार्थभाषाः - भावार्थ-हम नीरोग होकर ठीक दृष्टि को व स्वस्थ अविकृत अंगों को प्राप्त करते हुए पूर्ण जीवन को प्राप्त करें । अग्निहोत्र में आहुत हविर्द्रव्यों के द्वारा नीरोगता प्राप्ति का सूक्त में वर्णन है । वे रोगकृमि अपने रमण के लिये हमारा क्षय करने से 'रक्षस्' हैं। इनको नष्ट करनेवाला 'रक्षोहा' अगले सूक्त का ऋषि है। यह सब रोगों व राक्षसीभावों से ऊपर उठने के कारण ब्रह्म को प्राप्त होता है, सो 'ब्राह्मः कहलाता है । इसकी प्रार्थना है-