अग्नि व सोम द्वारा चिकित्सा [विष-प्रतीकार]
पदार्थान्वयभाषाः - [१] यहाँ नगरों में रहते हुए हम अनुभव करते हैं कि कुत्ते के काटने से कितने ही व्यक्तियों की मृत्यु हो जाती है। इसी प्रकार वानप्रस्थ में, जहाँ कि मकानों व पलंगों का स्थान कुटिया व भूमि ही ले लेती है, कृमि कीट के दंश की अधिक आशंका हो सकती है। सो कहते हैं कि (यत्) = जब (कृष्णः शकुनः) = यह काला पक्षी कौआ अथवा द्रोणकाक [= काकोल] (ते) = तुझे (आतुतोद) = पीड़ित करता है, (पिपीलः) = कीड़ा-मकोड़ा तुझे काट खाता है, (सर्प:) = साँप डस लेता है, (उत वा) = अथवा (श्वापदः) = कोई (हिंस्र) = पशु तुझे घायल कर देता है, (तत्) = तो (विष्वात्) = [विश्व + अद्] सब विष आदि को भस्म कर देनेवाली (अग्निः) = आग (अगदं कृणोतु) = तुझे नीरोग करनेवाली हो। सर्पादि के दंश के होने पर उस विषाक्त स्थल को अग्नि के प्रयोग से जलाकर विष प्रभाव को समाप्त करना अभीष्ट हो सकता है। विद्युत् चिकित्सा में कुछ इसी प्रकार का प्रभाव डाला जाता है। [२] यह अग्नि प्रयोग तभी सफल हो पाता है यदि शरीर में रोग से संघर्ष करनेवाली वर्च:शक्ति [vitality] ठीक रूप में हो। इस वर्चस् शक्ति के न होने पर बाह्य उपचार असफल ही रहते हैं। इसीलिए मन्त्र में कहते हैं कि (सोमः च) = यह सोम भी, वीर्यशक्ति भी तुझे नीरोग करे, (यः) = जो सोमशक्ति (ब्राह्मणान्) = ज्ञानी पुरुषों में (आविवेश) = प्रवेश करती है। ज्ञानी लोग सोम के महत्त्व को समझकर उसे सुरक्षित रखने के लिये पूर्ण प्रयत्न कहते हैं। नासमझी में ही इस सोम का अपव्यय हुआ करता है। शरीरस्थ यह सोम ही वस्तुतः सब विकारों के साथ संघर्ष करता है और उन्हें दूर करनेवाला होता है। औषधोपचारों का स्थान गौण है, वे इसके सहायक मात्र होते हैं।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- पक्षी, कृमि, कीट, सर्प, हिंस्र पशुओं से उत्पन्न किये गये विकारों को अग्नि के प्रयोग से तथा शरीर में सोम के संरक्षण से हम दूर करनेवाले हों ।