पदार्थान्वयभाषाः - [१] प्रस्तुत मन्त्र में (मण्डूकी) = मण्डूकपर्णी का उल्लेख है, यह कोश के अनुसार कई पौधों का नाम है [Name of sevaral plants] । ये सब पौधे शीतवीर्य व सुख प्रीति के बढ़ानेवाले हैं। शीतवीर्य होने से इन्हें मन्त्र में 'शीतिके' शब्द से सम्बोधित किया गया है तथा सुख-प्रीतिवर्धक होने से 'ह्लादिके' कहा गया है। हे (शीतिकावति) = शीतवीर्य वाली, शरीर में उत्तेजना को दूर करके शान्ति को जन्म देनेवाली (शीतिके) = शीतिका नाम वाली ओषधि, हे (ह्लादिकावति) = शरीर में उत्तम धातुओं को जन्म देकर आह्लाद को बढ़ानेवाली (ह्लादिके) = ह्लादिका नामवाली ओषधि; ऐ (ह्लादिकावति) = शरीर को उत्तम धातुओं से मण्डित करनेवाली है। तू (आ सु संगम) = सब प्रकार से उत्तमता से हमारे साथ संगत हो और (इमं) = इस (अग्निम्) = प्रगतिशील जीव की वैश्वानर अग्नि को (हर्षय) = हर्षित कर । इस की यह जाठराग्नि बुझ न जाए। यह दीप्त अग्नि इसके जीवन को भी दीप्त करनेवाली हो। दीप्त अग्नि ही शरीर में शान्ति व हर्ष के वर्धन का कारण बनती है।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- हमारे भोजन मण्डूकपर्णी ओषधि के समान शीतवीर्य व प्रीतिवर्धक हो । सूक्त के प्रारम्भ में आचार्य विद्यार्थी को तप व दण्ड की उचित व्यवस्था से ज्ञान परिपक्व करते हैं। [१] आचार्यकुल में विद्यार्थी असुनीति प्राणविद्या का अध्ययन करता है और स्वास्थ्य की कला को सीखता है, [२] सूर्यादि देवों के साथ यह अपनी अनुकूलता बनाता है, [३] तप पवित्रता व ज्ञानदीप्ति से यह प्रभु को धारण करता है, [४] गृहस्थ की समाप्ति पर फिर से पितरों के समीप वन में आता है, [५] विषादि को अग्नि प्रयोग से दूर करता है, [६] प्रभु स्मरण रूप कवच को धारण करता है, [७] अपने जीवन से कुटिलता को दूर करता है, [८] मांस भोजन को सर्वथा छोड़ता है, [९] वानस्पतिक भोजन द्वारा यज्ञिय वृत्ति वाला बनता है, [१०] शाकाहार से ही देवत्व तथा पितृत्व की वृद्धि होती है, [११] हम प्रभु की प्राप्ति की कामना वाले बनते हैं, [१२] हम कियाम्बु व पाकदूर्वा का प्रयोग करें, [१३] मण्डूकपर्णी जाति की ओषधियों को अपनायें जो कि शीतवीर्य व हर्षवर्धक हैं, [१४] ऐसा होने पर त्वष्टा की दुहिता सरण्यू से हमारा परिणय होगा ।