वांछित मन्त्र चुनें

ये चि॒त्पूर्व॑ ऋत॒साप॑ ऋ॒तावा॑न ऋता॒वृध॑: । पि॒तॄन्तप॑स्वतो यम॒ ताँश्चि॑दे॒वापि॑ गच्छतात् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ye cit pūrva ṛtasāpa ṛtāvāna ṛtāvṛdhaḥ | pitṝn tapasvato yama tām̐ś cid evāpi gacchatāt ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ये । चि॒त् । पूर्वे॑ । ऋ॒त॒ऽसापः॑ । ऋ॒तऽवा॑नः । ऋ॒त॒ऽवृधः॑ । पि॒तॄन् । तप॑स्वतः । य॒म॒ । तान् । चि॒त् । ए॒व । अपि॑ । ग॒च्छ॒ता॒त् ॥ १०.१५४.४

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:154» मन्त्र:4 | अष्टक:8» अध्याय:8» वर्ग:12» मन्त्र:4 | मण्डल:10» अनुवाक:12» मन्त्र:4


0 बार पढ़ा गया

ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (ये चित् पूर्वे) जो भी महानुभाव (ऋतसापः) अमृत का स्पर्श करनेवाले (ऋतवानः) अमृत को अपने अन्दर धारण करनेवाले (ऋतावृधः) अमृत के बढ़ानेवाले जीवन्मुक्त (तपस्वतः) तपस्वी (पितॄन्) पालकों को (यम तान्-चित्-एव-अपि-गच्छतात्) हे ब्रह्मचारिन् ! उन्हें भी प्राप्त हो ॥४॥
भावार्थभाषाः - ब्रह्मचारी को श्रेष्ठ महानुभाव अमृतभोगी तपस्वी जीवन्मुक्तों को प्राप्त करना चाहिए उनसे लाभ लेने के लिये या उन जैसा बनने के लिये ॥४॥
0 बार पढ़ा गया

हरिशरण सिद्धान्तालंकार

ऋतमय-तपस्वी - पितर

पदार्थान्वयभाषाः - [१] (ये) = जो (चित्) = निश्चय से (पूर्वे) = अपना पालन व पूरण करनेवाले हैं। शरीर को रोगों से बचाते हैं, मन में वासनाओं के कारण आ जानेवाली न्यूनताओं को दूर करते हैं । (ऋत- साप:) = [ऋत-यज्ञ व सत्य] यज्ञ व सत्य के साथ ही अपना सम्पर्क बनानेवाले [सप:- स्पर्श], (ऋतावानः) = ऋत का रक्षण करनेवाले व (ऋतावृधः) = ऋत का अपने में वर्धन करनेवाले हैं। उन (पितॄन्) = पालक वृत्तिवाले (तपस्वतः) = तपस्वियों को ही यह प्राप्त हो । [२] हे यम सब बालकों को नियम में रखनेवाले आचार्य ! (तान्) = उन ऋतमय जीवनवाले तपस्वी रक्षक वृत्तिवाले लोगों को (एव) = ही (चित्) = निश्चय से यह (अपिगच्छतात्) = प्राप्त हो। इसके गिनती भी उन ऋतमय तपस्वी पितरों में हो।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- हमारे सन्तान ऋतमय, तपस्वी व पितृ कोटि के [रक्षणात्मक वृत्तिवाले] हों ।
0 बार पढ़ा गया

ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (ये चित् पूर्वे) ये पूर्वे महाभागाः (ऋतसापः) अमृतस्पर्शिनः “ऋतममृतमित्याह” [जे० २।१६०] “सपः सपतेः स्पृशतिकर्मणः” [निरु० ५।१६] (ऋतवानः) अमृतवन्तः “छन्दसीवनिपौ वार्तिकेन मत्वर्थे वनिप्” (ऋतावृधः) अमृतवर्धकाः-जीवन्मुक्ताः (तपस्वतः पितॄन्) तपस्विनः पालकान् (यम तान् चित्-एव-अपि गच्छतात्) हे ब्रह्मचारिन् ! तानपि खलु ह्यपि गच्छ ॥४॥
0 बार पढ़ा गया

डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - And those ancients eternally committed to the truth of law, committed to the law of truth by yajna, promoters of truth and yajna, parents and forefathers established in tapas, O soul on travel in existence, the spirit of life flows to them and through them too, eternally.