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प्रि॒यं श्र॑द्धे॒ दद॑तः प्रि॒यं श्र॑द्धे॒ दिदा॑सतः । प्रि॒यं भो॒जेषु॒ यज्व॑स्वि॒दं म॑ उदि॒तं कृ॑धि ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

priyaṁ śraddhe dadataḥ priyaṁ śraddhe didāsataḥ | priyam bhojeṣu yajvasv idam ma uditaṁ kṛdhi ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

प्रि॒यम् । श्र॒द्धे॒ । दद॑तः । प्रि॒यम् । श्र॒द्धे॒ । दिदा॑सतः । प्रि॒यम् । भो॒जेषु॑ । यज्व॑सु । इ॒दम् । मे॒ । उ॒दि॒तम् । कृ॒धि॒ ॥ १०.१५१.२

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:151» मन्त्र:2 | अष्टक:8» अध्याय:8» वर्ग:9» मन्त्र:2 | मण्डल:10» अनुवाक:11» मन्त्र:2


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (श्रद्धे) हे सद्-आस्था (मे) मेरे (इदम्-उदितम्) मेरे इस घोषित वचन को (ददतः) दान देते हुए मनुष्य का (प्रियं कृधि) कल्याण कर (श्रद्धे) हे सद्-आस्था ! (दिदासतः) देने की इच्छा रखनेवाले मनुष्य का कल्याण कर (भोजेषु) दान के भोक्ता जनों में तथा (यज्वसु) दक्षिणा ग्रहण करनेवाले ऋत्विजों में कल्याण कर ॥२॥
भावार्थभाषाः - श्रद्धा ऐश्वर्य के ऊँचे स्थान पर बैठती है, इसलिए श्रद्धायुक्त मेरे ये घोषित वचन सफल हों, दान देते हुए का और दान देने की इच्छा रखते हुए का कल्याण हो और दान का भोग करनेवालों का भी कल्याण हो और यज्ञ की दक्षिणा लेते ऋत्विजों का भी कल्याण हो, इस प्रकार श्रद्धा से देनेवाले श्रद्धा से यज्ञ करानेवाले, श्रद्धा से खानेवाले और श्रद्धा से दक्षिणा लेनेवाले ये सब श्रद्धायुक्त हों ॥२॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

श्रद्धा से दान का सम्भव

पदार्थान्वयभाषाः - [१] हे (श्रद्धे) = दृढ़ आस्था के रूप में हृदय में निवास करनेवाली श्रद्धे ! (ददत:) = देनेवाले का (प्रियम्) = प्रिय होता है। (श्रद्धे) = हे श्रद्धे ! (दिदासतः) = दान की कामनेवाले का भी (प्रियम्) = प्रिय होता है । वस्तुतः दान श्रद्धापूर्वक ही दिया जाता है। देखने में तो उतना रुपया नष्ट होता लगता है । पर शास्त्र यही कहते हैं कि 'यदाशीर्दा दम्पती वाममप्रुतः 'दिल खोलकर देनेवाले पति - पत्नी सुन्दर सन्तान को प्राप्त करते हैं । 'दक्षिणां दुहते सप्त मातरम्' दान से सप्तगुणित धन को प्राप्त करते हैं । अर्थात् दान से 'पुत्रैषणा' 'वित्तैषणा' व 'लोकैषणा' सभी इच्छाएँ पूरी होती हैं। इन वाक्यों में श्रद्धा के होने पर ही दान दिया जाता है। [२] (भोजेषु) = अतिथियज्ञ में अतिथियों को भोजन करानेवाले व्यक्तियों में तथा (यज्वसु) = यज्ञशील पुरुषों में (मे) = मेरे (इदं उदितम्) = इस कथन को (प्रियं कृधि) = प्रिय करिये। 'दान देनेवाले का कल्याण होता है' यह वाक्य उन्हें प्रिय हो। इस वाक्य में श्रद्धा रखते हुए वे भोज व यज्वा बनें, अतिथियज्ञ व देवयज्ञ आदि को करनेवाले बनें ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - श्रद्धा ही मनुष्य को दानशील बनाती है ।
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (श्रद्धे मे-इदम्-उदितम्) हे श्रद्धे सत्-आस्थे ममेदं घोषितवचनम् (ददतः प्रियं कृधि) दानं प्रयच्छतो जनस्य प्रियं कल्याणं कुरु (श्रद्धे दिदासतः प्रियम्) हे सदास्थे ! दातुमिच्छतः प्रियं कल्याणं कुरु (भोजेषु यज्वसु) दानस्य भोक्तृषु दक्षिणां गृहीतवत्सु खल्वृत्विक्षु प्रियं कल्याणं कुरु ॥२॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - O Shraddha, faith committed to truth, reason and more, do good to the faithful who give. Shraddha, do good to the faithful disposed to give. Do good to those who give and those who receive. Do good to the performers as well as to the beneficiaries of yajna. Pray do this and justify what I have said of faith and truth.