पदार्थान्वयभाषाः - [१] (ये) = जो (नः) = हमारे (पूर्वे) = अपना पूरण करनेवाले, गृहस्थ में रागादि के रूप में उत्पन्न हो गई कमियों को दूर करके संन्यास की तैयारी करनेवाले (पितरः) = हमारे पितर (सोम्यासः) = अत्यन्त सोम्य स्वभाव के हैं, (सोमपीथं अनूहिरे) = सोम के पान का धारण करनेवाले हैं । अर्थात् शरीर में सोम का रक्षण करनेवाले हैं। (वसिष्ठाः) = काम-क्रोध को वशीभूत करके अत्यन्त उत्तम निवास वाले बने हैं । [२] (तेभि) = इन पितरों के साथ (यमः) = नियन्त्रण में रहनेवाला विद्यार्थी से (रराण:) = क्रीड़ा करता हुआ, क्रीड़ा-क्रीड़ा में ही सब कुछ सीखता हुआ, (हवींषि उशन्) = हवियों को चाहता हुआ, (उशद्भिः) = हित को चाहनेवाले आचार्यों के साथ (प्रतिकामम्) = जब-जब शरीर को इच्छा से, अर्थात् आवश्यकता का अनुभव हो, तब-तब (अत्तु) = भोजन को खाये । [३] यहाँ दो बातें स्पष्ट है- पहली तो यह कि पढ़ाने का प्रकार इतना रुचिकर हो कि विद्यार्थियों को पढ़ाई खेल-सी प्रतीत हो। दूसरी बात यह कि हम भोजन तभी करें जब कि शरीर को आवश्यकता हो। और वह भी त्यागपूर्वक । यज्ञ करके यज्ञशेष को खाने से ' त्यक्तेन भुञ्जीथा: ' इस शास्त्र का प्रमाण हो जाता है । और साथ ही शरीर नीरोग बना रहता है।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- हमें पितर रोचकता से ज्ञान के देनेवाले हों। हम हवि की कामना करें। आवश्यकता के अनुसार ही हम खानेवाले बनें।