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हिर॑ण्यस्तूपः सवित॒र्यथा॑ त्वाङ्गिर॒सो जु॒ह्वे वाजे॑ अ॒स्मिन् । ए॒वा त्वार्च॒न्नव॑से॒ वन्द॑मान॒: सोम॑स्येवां॒शुं प्रति॑ जागरा॒हम् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

hiraṇyastūpaḥ savitar yathā tvāṅgiraso juhve vāje asmin | evā tvārcann avase vandamānaḥ somasyevāṁśum prati jāgarāham ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

हिर॑ण्यऽस्तूपः । स॒वि॒तः॒ । यथा॑ । त्वा॒ । आ॒ङ्गि॒र॒सः । जु॒ह्वे । वाजे॑ । अ॒स्मिन् । ए॒व । त्वा॒ । अर्च॑न् । अव॑से । वन्द॑मानः । सोम॑स्यऽइव । अं॒शुम् । प्रति॑ । जा॒ग॒र॒ । अ॒हम् ॥ १०.१४९.५

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:149» मन्त्र:5 | अष्टक:8» अध्याय:8» वर्ग:7» मन्त्र:5 | मण्डल:10» अनुवाक:11» मन्त्र:5


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (सवितः) हे उत्पादक परमात्मन् ! (अङ्गिरसः) प्राणों में साधु, प्राणायामाभ्यासी, प्राणविद्या को जाननेवाला ! (हिरण्यस्तूपः) अमृतमय सङ्घात जिसका है, ऐसा जीवन्मुक्त (त्वां जुह्वे) तुझ-तेरी उपासना करता है (अस्मिन् वाजे) इस मोक्षविषयक अमृतान्न भोग के निमित्त (एवा त्वा-अवसे) इस प्रकार तुझे रक्षा के लिए (वन्दमानः-अर्चन्) वन्दन स्वभाववाला तेरी स्तुति करता हुआ (सोमस्य-अंशुं प्रति-इव) सोमरस के प्रति जैसे जागते हैं, ऐसे (अहं जागर) तुझे प्राप्त करने को जागता हूँ या सोम के रस की भाँति अपनी आत्मा को तेरे लिए समर्पित करने को जागता हूँ ॥५॥
भावार्थभाषाः - प्राणायामाभ्यासी प्राणविद्या का जाननेवाला जीवन्मुक्त परमात्मा की उपासना करता है, मोक्ष-विषयक अमृतान्नभोग प्राप्त करने के लिए वन्दन स्वभाववाला होकर सोमरस के पान करने के लिए सदा जागरूक रहता है या अपने को सोमरस की भाँति परमात्मा के प्रति समर्पित करने को जागता है ॥५॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

उपासना में अप्रमाद

पदार्थान्वयभाषाः - [१] हे (सवितः) = सर्वोत्पादक प्रभो ! (यथा) = जैसे (अस्मिन् वाजे) = इस जीवन-संग्राम में (हिरण्यस्तूपः) = वीर्य की ऊर्ध्वगतिवाला (आंगिरसः) = अंग-अंग में रसवाला उपासक (त्वा) = आपको (जुह्वे) = पुकारता है। एवा इसी प्रकार (त्वा) = आपको (अर्चन्) = पूजता हुआ अतएव 'अर्चन्' नामवाला उपासक मैं (अवसे) = रक्षण के लिये (वन्दमानः) = स्तुति करता हूँ । आपका वन्दन करता हुआ मैं रक्षण के लिये प्रार्थना करता हूँ । [२] (अहम्) = मैं आपकी उपासना के (प्रति जागर) = विषय में इस प्रकार जागरित व सावधान रहूँ (इव) = जैसे कि (सोमस्य अंशुम्) = सोम के अंशु के प्रति जागरित होता हूँ । 'सोम' वीर्यशक्ति है, इसका 'अंशु' इससे उत्पन्न प्रकाश की किरण है । सोमरक्षण से बुद्धि सूक्ष्म बनती है और उस सूक्ष्म बुद्धि से ज्ञान का प्रकाश प्राप्त होता है। इस सोम के अंशु के प्रति जिस प्रकार सावधान रहना आवश्यक है, इसी प्रकार प्रभु के उपासन के प्रति भी सावधान रहना जरूरी है ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- हम प्रभु के उपासन के प्रति सदा सावधान रहें। इस उपासना में कभी प्रमाद न करें । सुखी सम्पूर्ण सूक्त प्रभु को सविता के रूप में उपासित करता है। यह उपासक ही जीवन को बना पाता है । औरों को सुखी करनेवाला यह 'मृडीक' कहलाता है। उत्तम निवासवाला व वसियों में श्रेष्ठ होने से 'वासिष्ठ' है। यह प्रार्थना करता है कि-
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (सवितः) हे उत्पादक परमात्मन् ! (आङ्गिरसः) अङ्गिरस्सु प्राणेषु साधुः प्राणायामाभ्यासी प्राणविद्यावित् “आङ्गिरसान्-अङ्गिरस्सु प्राणेषु साधून्” [ऋ० ६।३५।५ दयानन्दः] (हिरण्यस्तूपः) हिरण्मयोऽमृतमयः स्तूपः-हिरण्मयः स्तूपोऽस्येति “स्तूपः सङ्घातः” [निरु० १०।३३] “अमृतं वै हिरण्यम्” [तै० सं० ५।२।७२] जीवन्मुक्तः (त्वां जुह्वे) त्वां गृहीतवान्-उपासितवान् “हु दानादनयोः आदाने च” [जुहो०] आदानेऽर्थेऽत्र (अस्मिन् वाजे) अस्मिन् मोक्षविषयकेऽमृतान्नभोगे “अमृतोऽन्नं वै वाजः” [जै० २।१९३] (एवा त्वा-अवसे वन्दमानः-अर्चन्) रक्षायै वन्दनस्वभावः वदि धातोः “ताच्छील्यवयोवचनशक्तिषु चानश्” [अष्टा० ३।२।१२९] ताच्छील्ये चानश् प्रत्ययः-त्वामर्चन् स्तुवन् (सोमस्य-अंशुं प्रति-इव-अहं जागर) सोमस्य रसं प्रति रसलाभाय जागर्ति तथा त्वां प्राप्तुं जागर्मि-यद्वा सोमस्य रसमिव स्वात्मानं तुभ्यं समर्पयितुं जागर्मि ॥५॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - O Savita, just as Angirasa, yogi with controlled pranic energy, established in the golden beauty of the spirit, invokes you in this yajna for the essence through existence, so do I, dedicated to worship and prayer with adoration, keep awake waiting for the revelation of divinity as my share of soma, divine ecstasy of ultimate freedom.